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को भी पा लिया तो क्या लाभ? मृत्यु तो उसे सबसे वंचित कर डालेगी। ___ जो व्यक्ति स्वयं से अनभिज्ञ है, वह बाहरी ज्ञान कितना भी प्राप्त कर ले, वह अस्तित्व बोध से वंचित रहेगा। भगवान महावीर ने आचारांग में कहा, 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई।' यह महावीर द्वारा दिया गया ध्यान-सूत्र - जो एक को जानता है, वह सबको जानता है । जिसने एक को, स्वयं को नहीं जाना वह सब कुछ जानकर भी क्या जान पाया? आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति स्वयं का बोध प्राप्त करे, आत्मबोध । अगर उसने आत्मबोध प्राप्त कर लिया तो विश्व-बोध के द्वार तो स्वतः उघड़ पड़ेंगे।
मनुष्य तो विश्व की एक इकाई है। इसलिए जब वह स्वयं को जान लेगा तो अस्तित्व के अन्तर-रहस्य का बोध स्वतः प्राप्त कर लेगा। ठीक उसी तरह जैसे चावल का एक दाना देखकर हम जान जाते हैं कि पूरी हँडिया के चावल पक गए या कच्चे हैं।
अब मनुष्य परमात्मा की खोज में चल देता है। वह बाहर की ओर, हिमालय की कंदराओं में, घने जंगलों में प्रभु की खोज करता है। कोई हरिद्वार जा रहा है, किसी को बद्री-केदारनाथ का स्मरण आता है। स्वयं को खोजने के लिए बहिर्यात्रा शुरू हो जाती है। वह नहीं जानता कि उसका पहला कदम अन्तर्जगत् की ओर उठना चाहिए।
हमें अपने अन्तर-अस्तित्व की तलाश करनी है तो सबसे पहले अपने भीतर जमे अज्ञान-अंधकार को कि परमात्मा कहीं बाहर है, आत्मा का अस्तित्व कहीं दूर है और उसकी तलाश भी वहीं जाकर करूँ, इसमें संशोधन करना होगा। हमारे भीतर की इस भावना को भी हटाना होगा कि हिमालय की गुफा में या नदी के किनारे जाकर ध्यान करने पर ही परमात्मा उपलब्ध होगा या स्वयं को जान सकेंगे। नहीं, कहीं जाने की जरूरत नहीं है और न ही मात्र सुबह-शाम कुछ समय के लिए ध्यान करने बैठ जाने से स्वयं को पा सकोगे। ध्यान तो निरंतर चलने वाली सजगता है। ध्यान तो हमारे जीवन में रम जाना चाहिए हमारी परछाई की तरह, साँसों की तरह, धमनियों में खून की तरह । साक्षित्व की सजगता ही ध्यान है।
जीवन की प्रत्येक क्रिया खाना, सोना, उठना, चलना, व्यवसाय सब ध्यानमूलक हो जाना चाहिए। जब सभी क्रियाएँ ध्यानपूर्वक हो जाएँगी, ध्यान-मूलक हो जाएँगी तो परिणाम यह होगा कि अभी तो हम सुबह-शाम सप्रयास ध्यान करते हैं लेकिन तब चौबीस घंटे ध्यान में जीएँगे। जब शिष्यों ने महावीर से पूछा कि मनुष्य कैसे खाए, कैसे पीये, कैसे चले, कैसे जीये, ताकि उसके पाप-कर्म का बंधन न हो।
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