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________________ मैं सोया हूँ । पागल को अगर यह पता चल जाए कि वह पागल है तो उसका पागलपन अपने आप दूर हो जाए। __ भगवान बुद्ध के बारे में कहते हैं कि बुद्ध रात को जिस करवट से सोते थे, सुबह उसी करवट से उठते थे। जो शरीर का भाग जिस ढंग से रात को सोते वक्त रहता था सुबह वैसा ही मिलता था। कहते हैं एक दिन आनन्द ने भगवान से पूछा कि प्रभु मैं रात को सोता हूँ तो जिस करवट से सोता हूँ सुबह दूसरी करवट से उठता हूँ कभीकभी तो सिराहना पश्चिम की ओर करके सोता हूँ, सुबह आँख खुलती है तो पाता हूँ वह उत्तर की ओर होता है; आश्चर्य आपके तो अँगुली भी रात में नहीं हिलती है इसका कारण क्या है? __बुद्ध मुस्कराए, बोले, वत्स! मैं जगे-जगे सोता हूँ। जब मेरा शरीर सो जाता है तब भी मेरी चेतना जगी रहती है। और एक आत्म-साधक की यह पहली पहचान है कि वह न केवल जगे-जगे जगा रहे अपितु सोये भी जाग्रति में ही, जब शरीर सोया हुआ हो तब भी अंतश्चेतना जगी रहे। हमारे साथ तो उल्टा ही चल रहा है, महावीर और बुद्ध तो रात में सोते थे तब भी जगे रहते थे और हम दिन में जगे हैं तब भी सोए-सोए हैं । ज्ञानीजनों ने मनुष्य के चित्त की जो तीन अवस्थाएँ कही हैं हम उन्हें बारीकी से समझें। पहली अवस्था सुषुप्ति, दूसरी स्वप्न, तीसरी जाग्रति । स्वप्न और सुषुप्ति बेहोशी है, मुर्छा है, प्रमाद है और ज्ञानियों ने जिस जाग्रति का जिक्र किया है महावीर उसी को अप्रमत्त अवस्था कहते हैं । महावीर और बुद्ध का जो ध्यान मार्ग है, चाहे हम उसे विपश्यना की संज्ञा दें या प्रेक्षा की, मूलतः जाग्रति ही उसका आधार बिन्दु है। मूर्छा में न तो विपश्यना के मार्ग से गुजरना सम्भव है और न ही प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा या संबोधि के मार्ग से। जहाँ भी जड़ और पुद्गल पदार्थों से हटकर स्व-भाव में लौटने का प्रयास करोगे, अप्रमत्तता उसकी पहली और आखिरी सीढ़ी होगी। साधना में प्रथम व अंतिम चरण दोनों ही अप्रमत्त दशा ही तो है। महावीर के अनुसार शिखर के करीब पहुँच कर भी क्षण-भर के लिए भी व्यक्ति मूर्च्छित हो जाता है तो वापस तलहटी पर ही पहँचेगा। क्षण-क्षण जागरूक अवस्था, पल-प्रतिपल सजगता, साधना के शिखर पर चढ़ने के लिए ये पहली आवश्यक शर्ते हैं। हम सब सोए हैं जितना यह सत्य है उतना ही यह भी सत्य है कि इस सुषुप्तावस्था का हमें कहीं बोध भी नहीं है। आदमी बहुत कुछ सोए-सोए करता है। सुबह क्रोध किया, साँझ को क्षमा माँगने के लिए गये; सुबह चाँटा मारा, साँझ को हाथ जोड़ने के लिए गए। कहा, मैं नहीं चाहता था फिर भी क्रोध आ गया। जब तुम | 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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