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________________ के चूल्हे को तीली दिखाते हैं, तब हमारी यतना की डोर इतनी ढीली पड़ जाती है कि हम गैस के चूल्हे पर एक नज़र भी नहीं डालते कि कहीं कोई कीट-कीटाण, जीवजीवाणु तो नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि जब रात को दूध गरम किया हो, उफना हो, बाहर गिरा हो और उसकी मिठास से रात भर में कई चींटियाँ चूल्हे पर चढ़ आई हों। ऐसा कुछ भी होने पर हमारा एक छोटा-सा अविवेक उन चींटियों को झुलसा सकता है। ___ यह हमारी धर्म के साथ बेहोशी नहीं तो और क्या है? जब हम अपनी शोभायात्राओं में नारेबाजी तो अहिंसा और दया की करते हैं और पैरों में जूते-चप्पल चमड़े के पहना करते हैं। मेरे प्रभु! धर्म और अध्यात्म को केवल कहने भर से प्रचारित-प्रसारित नहीं किया जा सकता, उसे हमें वहाँ भी लाना पड़ेगा जहाँ हम तस्करी करते हैं , मिलावट करते हैं, अन्याय, अत्याचार और बेईमानी करते हैं। मैं जागकर जीने की बात करता हूँ, इसका अर्थ सिर्फ इतना ही नहीं है कि तुम सामायिक, प्रतिक्रमण या पूजा-पाठ ही जागकर करो। मैं तो कहूँगा क्रोध भी जागकर करो। तुम्हें इतना बोध तो होना ही चाहिए कि मैं क्रोध कर रहा हूँ। जब जीवन में जाग्रति का शंखनाद होता है, तभी व्यक्ति संसार में समाधि को आत्मसात कर पाता है। हम सिर्फ उस व्यक्ति को बेहोश समझते हैं, जो किसी नशे में जी रहा है या मानसिक रूप से विक्षिप्त है लेकिन उससे भी ज्यादा वह व्यक्ति बेहोश है, जो सत्य को जानकर भी सत्य में जी नहीं पाता। जब व्यक्ति सत्य में जीने की कला सीख जाता है, संबोधि में जीता है। इस अहोभावमय दशा का नाम ही तो बुद्धत्व है। मेरी नज़र में ध्यान सिर्फ वहाँ फलित नहीं होता, जहाँ व्यक्ति रोजाना एक-आध घंटा आसन लगाकर आँखें बंद कर बैठ जाता है। घनीभूत ध्यान वहाँ होता है, जहाँ व्यक्ति आसन से उठने के बाद भी ध्यान में जीता है। जब आसन पर बैठे थे, तब केवल मन को समझना था। जब आसन से उठ गये, तो जीवन को समझना है। ध्यान से उठने के बाद भी खाना, पीना, उठना, बैठना, सोना, चलना, फिरना सब कुछ ध्यानपूर्वक ही होना चाहिए। अन्यथा आसन पर आधे घंटे तक किया जाने वाला ध्यान तो ठीक वैसे ही होगा, जैसे सुबह-शाम दवा की गोली तो खा ली पर उसके आगे-पीछे परहेज नहीं कर पाये। परहेज के अभाव में तुम यह सोचकर संतुष्ट हो जाओगे कि मैंने दोनों समय दवा ले ली, लेकिन स्वस्थ नहीं हो पाओगे। लोग पूछते हैं, परमज्ञान कैसे होता है? आत्मदर्शन कैसे होता है? हम परमात्मा से साक्षात्कार की विधियाँ जानना चाहते हैं। मेरे प्रभु! परमात्म-दर्शन न तो पद्मासन में होता है, न ही खड़गासन में। न शीर्षासन में होता है, न मयूरासन में । सत्य तो कहीं | 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003872
Book TitleDhyan Yog Vidhi aur Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size19 MB
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