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विपश्यना में चाहिए सचेतनता, निरन्तरता
प्रत्येक इंसान के अन्तरमन में किसी-न-किसी प्रकार का क्रोध, रोष, चिन्ता, तनाव, अवसाद हावी रहते ही हैं। थोड़ी-सी विपरीतता आते ही हम अपना आपा खो देते हैं। ज़रा-सी विफलता से तनावग्रस्त हो जाते हैं । नुकसान हो जाने पर चिन्ता का चक्रव्यूह रच जाता है। माना कि हम सभी को प्रेम और शांतिमय जीवन का स्वामी होना चाहिए, सबके प्रति करुणा और क्षमा का सद्भाव रखना चाहिए, यह तो जीवन का आदर्श है, लेकिन क्रोध और रोष, दुःख और दौर्मनस्य, वैर और विरोध हमारे जीवन में जब-तब उठ जाते हैं, सच्चाई है। सच्चाई और आदर्शों में फ़र्क़ होता है। हमें क्रोध आता है, यह सच्चाई है। हमें प्रेमपूर्ण रहना चाहिए, यह आदर्श है। आदर्श वह जो हमें प्राप्त करना है और सच्चाई वह जिससे हम अपने वर्तमान में गुजर रहे हैं। प्रश्न है जिन हक़ीक़तों से हम घिरे हुए हैं क्या वे हमारे जीवन में यूँ ही बनी रहेंगी या इन्हें अपने जीवन से हटाने में हम सफल हो सकते हैं या हटाने के लिए कोई रास्ता तलाश सकते हैं ? अतीत में जन्मों-जन्मों से क्रोध करते रहे, कामातुर बने रहे,
यह
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