SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन शब्दों को अपने हृदय में बसा लें और आचरण में उतार लें। इन चार शब्दों में चार वेद, चार आश्रम और संयम की चार दिशाएँ छिपी हैं। बुद्ध पहला शील कहते हैं हिंसा का त्याग करें । मन के द्वारा बुरे संकल्पविकल्प करने से परहेज रखें। वाणी को संयमित ढंग से बोलने की कोशिश करें। जो बात तैश में आकर बोलते हैं, हम कोशिश करें कि उसी बात को प्रेमपूर्वक, शांतिपूर्वक कह सकें। तब हमारे जीवन से क्रोध और हिंसा का सफाया हो सकेगा। मन, वचन और काया के द्वारा हिंसा का त्याग । अगर हम हिंसा के त्याग का विवेक रखेंगे तो वैर-विरोध के त्याग का भी संकल्प रख सकेंगे। अन्यथा हिंसा ही नहीं छूटी तो वैर-विरोध कहाँ से छूट सकेगा। कहने को दुनिया में लाखों लोग अहिंसा में विश्वास रखते होंगे पर लाखों में शायद एकाध ही ऐसा होता होगा, जो वैर-विरोध न रखता हो । वैर-विरोध रखना ही सबसे बड़ी हिंसा है और वैर-विरोध का त्याग करना ही सबसे बड़ी अहिंसा है। धम्मपद में बुद्ध का यह प्रसिद्ध वचन है- न हि वैरैण वैराणि सम्मति ध कुदाचन, अवैरेण च सम्मंति, एस धम्मो सनंतनों । बुद्ध कहते हैं- वैर से कभी वैर शांत नहीं होता, अवैर से, प्रेम और क्षमा से ही वैर को शांत किया जा सकता हैयही सनातन धर्म है। सनातन धर्म की जय बोलने से कोई धर्म की जय नहीं होती । सनातन धर्म यह कि हम अपने जीवन में से वैर-विरोध की गाँठ खोलें। हमारे कारण अगर किसी के वैर-विरोध के भाव बन गए हैं तो 'सॉरी' कह दें, माफी माँग लें। अवसर ढूँढ लें, जैसे कि शादी का अवसर, राखी का अवसर, वर्षीतप का पारणे का अवसर- इन्हें भुना लो। इस अर्थ में कि आत्म-शुद्धि का, परिवार के मिलन का मौका मिला है लाभ उठाओ कि अगर आपके द्वारा किसी के प्रति वैर-विरोध हआ है तो क्षमा माँग लो और अपने यहाँ सुअवसर पर आने का आमंत्रण दो। स्मरण रहे, दो पड़ोसियों के मकान पास-पास हो सकते हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि उनके मन भी पास-पास हों। दोनों के बीच में बहुत दूरी हो सकती है। किन्हीं कारणों से सम्भव है, दोनों के बीच टकराव हो गया हो, दूरियाँ बन गई हों, लेकिन किसी भी अवसर के आते ही जैसे दिवाली, होली या पर्युषण पर्व पर आपसी गिले-शिकवे मिटाए जा सकते हैं। देखा जाए तो ये पर्व-त्यौहार होते ही इसीलिए हैं कि वर्ष बीत गया, व्यक्ति को अपने जीवन में प्रेम-सम्बन्धों को फिर से जोड़ लेना चाहिए। अगर हम वैर रखेंगे तो 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003871
Book TitleVipashyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy