SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करवा दूंगा। पाँच-पाँच हजार अपने नाती-पोतों को भी दे दूंगा। वह रात भर ख्वाब देखता रहा कि यह करूँगा, वह करूँगा। सुबह उठा तो उसने अखबार देखा। कल जहाँ विज्ञापन था, आज उसी पृष्ठ पर एक और विज्ञापन था। भूल सुधार का। उसमें छपा था- कल जो लॉटरी का विज्ञापन था उसमें अंतिम अंक तीन के बजाय सात पढ़ा जाए। कल भी अखबार आया था और आज भी, कल भी विज्ञापन था आज भी. रुपये न कल हाथ में थे और न आज हाथ में है। उसके बावजद कल का दिन खुशियों में डूबा था और आज का दिन ग़म में। तभी तो मैंने कहा कि व्यक्ति सुख और दुःख भीतर से नहीं बल्कि बाहर के निमित्तों से पाता है। निमित्त बदलते रहते हैं। जो निमित्तों के प्रभाव में आकर जीवन जीते हैं उनके दिन कभी सुख भरे और रातें पीड़ा भरी, कभी दोपहर खुशी की और सांझ दुःख की हो जाती है। किसी को भी बिजली के बल्ब की तरह नहीं होना चाहिए जिसे जलाना और बुझाना दूसरे के हाथ में होता है। क्या हमारे जीवन की शांति, सुख, प्रसन्नता और आनंद किसी बल्ब की तरह तो नहीं है जो दूसरों से संचालित हो रहा है ? किसी ने हमारी तारीफ की, हमारे मन के अनुकूल बात कही और हम प्रसन्न हो गए और किसी ने हमारे प्रतिकूल बात कही तो हम अप्रसन्न हो गए। ऐसी खुशियों, ऐसी शांति, सुख और आनंद हमारे अपने नहीं बल्कि किराए के हैं, उधार लिए हुए हैं । ऐसी प्रसन्नता की कोई उम्र नहीं होती। चित में खुश रहें और पट में भी जिंदगी में सदाबहार प्रसन्न और आनंदचित्त रहने के लिए न तो कार की जरूरत होती है, न ही सत्ता-सम्पत्ति की, न ही आलीशान मकान, दुकान, फैक्ट्री और ऑफिस की जरूरत होती है। ये सब सुविधाएँ दे सकते हैं, शांति नहीं। शांति और जीवन की खुशियाँ कहीं और छिपी हुई हैं। जब हम जानना चाहते हैं कि सदाबहार प्रसन्न कैसे रहें तो एक बात निश्चित समझ लें कि प्रसन्नता औरों से नहीं बल्कि अपने चित्त की चेतना से ही उपार्जित की जाती है। आज तो आदमी की जेब में ऐसा सिक्का है जिसके एक ओर खुशी और दूसरी ओर नाखुशी और नाउम्मीदी खुदी हुई Jain Education International For Person 110 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003870
Book TitleChinta Krodh aur Tanav Mukti ke Saral Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2012
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy