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परमेश्वर हमारे पास
हृदय से उठने वाली प्रार्थना की लौ ही,
लौ से लौ लगाती है।
टेश्वर मानवजाति की एक अंतर्-पुकार है। ईश्वर के बारे में बहुत-कुछ सोचा
२ गया है। कइयों ने उसे नकारा भी है, तो बहुतों ने उसे स्वीकारा भी है। ईश्वर प्रश्नों-का-प्रश्न है, तो उत्तरों-का-उत्तर भी। जगत् में फैलने वाली बुराइयों के कारण लोगों ने ईश्वर को केवल कपोल-कल्पना कहा है, किंतु जोग-संजोग पर टिके जीवन को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि शायद वह हो। ईश्वर कहाँ है
और उसका स्वरूप क्या है - यह तो एक चिरंतन प्रश्न है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रश्न भी बहुआयामी हुआ है।
मुझे ईश्वर से प्रेम है। प्रेम ही वास्तव में ईश्वर है। हमें सभी से प्रेम करना चाहिए, क्योंकि प्रेम अमृत है। जिससे प्रेम करते हो, उसकी माँस-मज्जा तो एक दिन धूल में मिल जाएगी, किंतु प्रेम तो मृत्यु के बाद भी रहता है। प्रेम की मृत्यु नहीं हुआ करती। प्रेम तो सनातन जीवन है। यह हमेशा रहता है। सबसे प्यार करना ही ईश्वर की आराधना है। ऐसा लगता है कि प्रेम ही ईश्वर है।
ईश्वर हममें है, सबमें है। हर व्यक्ति में छिपा हुआ है ईश्वर । वास्तव में जीवन ही ईश्वर है। हमसे हटकर ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। ऐसा नहीं है कि वह किसी शानदार सोनैया महल/दुर्ग में रहता हो। वह हमारे पास रहता है, हमारे साथ रहता है। हमारे साथ उसकी गहरी एकात्मकता है। प्राणिमात्र में निहित सत्य वास्तव में ईश्वरीय सत्य ही है। इसलिए जो प्राणियों से प्रेम करता है, वह वास्तव में उसके प्राणेश्वर से ही प्रेम कर रहा है।
एक व्यक्ति तो वह है जो सुबह उठकर परमेश्वर की प्रार्थना करता है और एक वह है जो लोगों से प्यार करता है, प्राणपण से उनकी सेवा करता है। दोनों ही
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