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अन्तर के पट खोल
तभी शाश्वत मिलन की संभावना मुखर होती है।
__ क्या हम चारों ओर परमात्मा को देख रहे हैं ? हमें तो पड़ी है अपने स्वार्थ की। यदि चारों ओर हम परमात्मा ही परमात्मा को देखें, तो हमारे जीवन में पाप की रत्ती भर भी धूल दिखाई न देगी। जीवन का हर कृत्य पुण्य कृत्य ही हो जाएगा। फिर हम परमात्मा को ढूँढेंगे नहीं, बल्कि हमारे हर कृत्य में वह परमात्मा ही व्यक्त होगा। परमात्मा ही हमारे जीवन की धड़कन बन जाएगा। श्वास-प्रश्वास में उसी का विहार होगा। फिर बाजार की सैर भी मंदिर की परिक्रमा बन जाएगी।
परमात्मा तो हर जगह है। वह मुझमें भी है, मंदिर में भी है, बाजार में भी है। अभी तो हम उसको भोग लगाते हैं। उसके नाम पर प्रसाद लेते हैं, लेकिन उसकी प्रतिध्वनि बनने के बाद भोजन ही भोग होगा और वही उसका प्रसाद बन जाएगा। उस व्यक्ति के व्यवसाय को व्यवसाय नहीं कहा जा सकता, जो ग्राहक में भी भगवान देखता है। परमात्मा के असली दर्शन तो तब होते हैं जब भक्त रावण में भी राम को निहारता है, शत्रु में भी मैत्री के प्रयत्न करता है। कबीर को देखो। ग्राहक में भी राम के दर्शन ! कबीर जब चादर बुनते, तो हर तार में राम का स्मरण समाया रहता। विनोबा जब झाड़ /बुहारी लगाते, तो जितनी बार बुहारी चलती, उतनी बार माला का मणिया पूरा होता। संत गोरा जब माटी के घड़े बनाते, तो घड़े पर लगाई जाने वाली हर थाप पर भगवत् नाम का जप चलता। रैदास जूतों की सिलाई करते, तो हर सुई-सिलाई के साथ प्रभु का स्मरण कर लेते। 'प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।' रैदास इस तरह भक्ति कर लेते। प्रभु को न तो तुम्हारे नैवेद्य चाहिएँ और न फल-मिठाई। ये सब तो वह तुम्हें दे रहा है। उसे तो चाहिए केवल तुम्हारा समर्पण, तुम्हारी सुरति और हृदय में बसी रहे उसकी स्मृति।
मंदिरों में कैसेट चलाने से भगवान की भक्ति थोड़े ही होती है। कैसेटों के गीत तो मनोरंजन भर होते हैं। पुकार तो हृदय से उठनी चाहिए। हृदयेश्वर तो केवल हृदय की प्रार्थना सुनता है।
भक्ति तो सभी करते हैं, पर हम जरा ईमानदारी से उसकी कसौटी करें। हम प्रार्थना कर रहे हैं या प्रार्थना के नाम पर ईश्वर से शिकायत। हम भगवान को इसलिए याद करते हैं, क्योंकि हमें बेटा चाहिए, बम्बई चाहिए, बासमती चावल चाहिए। हम या तो दुखी हैं इसलिए प्रार्थना करते हैं, या फिर दिवाला न निकल जाए, इस डर से उसके नाम पर दो स्तोत्र पढ़ लेते हैं। लगता है, लोगों को वास्तव में परमात्मा की जरूरत ही नहीं है। सबकी परमात्म-स्तुति तो शिकवा-शिकायतों को दूर करने के स्वार्थ से भरी हुई है। लोग दस मिनट मंदिर में लगाते हैं और बाकी का सारा समय दुनियादारी में।
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