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________________ समर्पण की सुवास अहंकार की पूँछ, 'मैं' की पूँछ मुक्त नहीं होने देती। अहंकार की पूँछ फिर भी बाँधे रखती है? अहं छूटे तो पूँछ छूटे। पूँछ क्या है ? अहंकार की अस्मिता। अहंकार यानी कुत्ता और अस्मिता यानी पूँछ। अहंकार यानी कुत्ते की पूँछ। बहुधा ऐसा होता है कि अहंकार तो चला जाता है, किंतु अपने पद-चिह्न पीछे छोड़ जाता है। मैं चला गया, किंतु हूँ' रह गया। 'मैं' अहंकार है और हूँ' उसकी परछाईं। 'मैं' सिर है, हँ' पूँछ। अहंकारी को झट से पहचाना जा सकता है, किंतु अहंकार की अस्मिता को नजरों में लाना कठिन है। उसी का यह परिणाम है कि निरभिमानी व्यक्ति को इस बात का अहंकार बना रहता है कि मुझमें अहंकार नहीं है। यह अहंकार की अस्मिता है। अस्मिता है, तभी तो विनम्रता को भी दर्शाया जा रहा है। जहाँ सहजता है, वहाँ अस्मिता कम है। जहाँ जीवन की हर गतिविधि में सिर्फ वहीं बचता है, 'तू' ही बचता है, वहीं ईश्वर की समाधि सधती है। जीवन-विकास के आध्यात्मिक चरण केवल दो ही हैं - या तो 'मैं' रहे यात्' रहे। 'मैं' में समा गया तो आत्म-समाधि का फूल खिल गया, मुक्ति जीवन में घटित हो गई; या फिर मैं को निर्मूल्य माना और संसार के हर तत्त्व में उस परम 'तू' को स्वीकार कर लिया। जहाँ है, वहाँ 'तू' है। जो है, वह 'तू' है। जैसा है, वैसा तेरे कारण है। जहाँ सिर्फ 'तू' ही 'तू' रह गया, वहाँ बूंद-बूंद न रही; बूंद सागर में समा गई। फिर वह व्यक्ति न रहा, वह तो ईश्वरमय हो गया। बूंद मिटे, तो सागर ही घटित होगा। जब तक बूंद अपने आपको सुरक्षित रखना चाहेगी, तब तक विराटता को पाया नहीं जा सकता। पूँछ छूटे, तो ही आजादी की धरती पर कदम रखा जा सकता है। यदि स्वतंत्रता और संपूर्णता योग की पूर्व दिशा है तो समर्पण और संपूर्णता योग की पश्चिम दिशा है। दोनों ही पूर्ण हैं। मनीषी और विचारवान् लोगों के लिए पहला मार्ग है, जब कि भावनाशील और हृदयवान लोगों के लिए दूसरा मार्ग है। एक में महावीर का मौन है, दूसरे में मीरा के घुघरू हैं। एक में शिखर की चढ़ाई है, दूसरे में सागर में डुबकी है। मार्ग चाहे संकल्प का हो या समर्पण का, उसे समग्र, तो होना ही चाहिए। ढुलमुल यकीन से काम नहीं चलेगा। ईश्वर प्रणिधानात् वा' ईश्वर की शरण में जाएँ। अपने को खोएँ और उसे पाएँ। जिसने स्वयं को खो दिया, उसने 'राम रतन धन' पा लिया। जो अपने को बचाता है, वह उसे कैसे पा सकता है ? । भक्ति तो प्रेम है, और प्रेम के मार्ग में दूसरे को पाने के लिए अपना सब-कुछ कुर्बान करना पड़ता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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