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चरैवेति-चरैवेति
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रहा था। सम्राट ने कहा, यह धोखा है। तुम दीए के ताप के सहारे नदी में रहे।
योगी सम्राट के तर्क पर मुस्कराया। उसने थोड़े दिनों बाद सम्राट को दावत दी। सम्राट सुबह ग्यारह बजे ही भोजन के लिए पहुँच गया। संत ने बताया, भोजन तैयार हो रहा है, परंतु दोपहर होने तक भी भोजन न मिला। सम्राट ने पूछा, क्या बात है ? अभी तक भोजन नहीं पका?' संत ने कहा, 'पक रहा है।' आखिर साँझ होने को आ गई। सम्राट बेचैन हो उठा। भूख के मारे बड़ी दयनीय दशा हो गई थी उसकी। वह जब भी भोजन के लिए पूछे, संत की एक ही बात सुनने को मिलती – ‘पक रहा है महाराज! बहुत जल्दी पक जाएगा।' भोजन किए बगैर लौटना भी राजा को न
अँचा।
अंत में राजा का धीरज टूट गया। वह उसके रसोईघर में गया, क्योंकि खाना पकने में इतनी देर तो लग ही नहीं सकती थी। राजा देखता क्या है कि चूल्हे पर बड़ा भारी पतीला रखा है और उसमें चावल भरा है, मगर चूल्हे में आग का एक अंगारा भी नहीं। सम्राट बोला, 'मूर्ख! यह तू क्या कर रहा है ? यों यह चावल कैसे पकेगा?' संत ने कहा - 'उसी दीए की आग से हम चावल पका रहे हैं, जिसके ताप से हम उस रात बच गए थे।'
महल के दीए से...! कहीं यही दुर्दशा तो हमारी नहीं है कि साधक और साध्य में इतनी दूरी बनी हुई है, जितनी पतीले और महल के दीए में है। तपेला तो चढ़ा रखा है मन का इतना बड़ा, और आग का कहीं पता ही नहीं है। यदि है भी तो एक-दो अँगारे। आग प्रभावी हो, पूरी हो। व्यक्ति समग्रत: पुरुषार्थशील हो।
जैसे सारी सरिताएँ सागर में जाकर समा जाती हैं, वैसे ही जब सारी इच्छाएँ उस परम तत्त्व की खोज में, उपासना में समर्पित होंगी, तो समाधि और परमात्मा के द्वार उसी वक्त खुल जाएँगे। ऊर्जा की, आग की सघनता से ही पानी उबलेगा, भाप की तरह ऊर्ध्वगमन करेगा।
जो चलता है, अनवरत लक्ष्य की ओर गतिशील रहता है, वही गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा पूरी करता है। फिर बूंद बूंद नहीं रहती सागर हो जाती है। ज्योति परमज्योति में शाश्वत समाधिस्थ हो जाती है। चेतना के हर चरण पूरे हो जाते हैं। वह चैतन्य पुरुष हो जाता है। चलने वाला कृत है, सत् है, स्वर्ण है और पाने/ पहुँचने वाला अमृत है, अमर है, प्रकाश से सराबोर है। कृत का तुम्हें आमंत्रण है, कलि को कृत बनाने के लिए, स्वर्ण और अमृत बनाने के लिए।
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