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________________ भेद-विज्ञान : साधक की अंतर्दृष्टि है और एक विदेह-मुक्ति। महावीर के अनुसार संबुद्ध पुरुष का कैवल्य-दशा में प्रवास करना ‘सयोगी केवली' अवस्था है। आत्म-तत्त्व/पुरुष द्वारा शरीर को भी केंचुली की तरह छोड़ देना उसकी 'अयोगी केवली' अवस्था है। जैन लोग जिसे ‘णमो सिद्धाणं' कहते हैं, इसी समय साकार होती है वह वंदनीय सिद्धावस्था। सिद्धत्व की इस शिखर-यात्रा की तराई भेद-विज्ञान की है। जहाँ आत्मा और पुद्गल का अंतर आत्मसात् होता है, वहीं जीवन में आत्मज्ञान की पहली किरण फूटती है। यही तो वह चरण है, जिसे विशुद्ध सम्यक् दर्शन और सम्यकत्व कहा जाता है। संन्यास की क्रांति इसी बोध-प्रक्रिया से अपना मौलिक संबंध रखती है। जब तक आत्मज्ञान घटित नहीं होता, तब तक किया जाने वाला हर विधि-विधान राख की ढेरी पर किया जाने वाला विलेपन है। आनंदघन अभिव्यक्ति को क्रांतिकारी मोड़ देते हुए कहते हैं - ‘आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे'। और मैं नहीं चाहता कि हम सिर्फ चोगे बदल लें और भीतर से जैसे थे, वैसे ही बने रहें। ठाणों को बदलने से जिंदगी नहीं बदला करती, मगर जहाँ जिंदगी में ही चैतन्य-क्रांति घट जाती है, वहाँ ठाणों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। भेद-विज्ञान आग है। अगर सचमुच कुछ होना, कुछ कर गुजरना चाहते हैं, तो इस आग को अपनी अंतर्दृष्टि में ग्रहण करें और जला डालें आत्मा और पुद्गल के अद्वैत को, पुरुष और प्रकृति के एकत्व को, जड़ और चेतन के रागात्मक साहचर्य को, रागात्मक अनुबंधों को। तुम सिद्धों जैसे हो, सिद्धों के वंश के हो, स्वयं पर गौरव करो। हमारी तो सिर्फ आत्मा है, शेष सब पराए हैं। आत्मा का अर्थ ही होता है अपना। आत्मा के अतिरिक्त जितने भी संबंध और संपर्क-सूत्र हैं, हमारे लिए तो वे सब-के-सब विजातीय हैं। विजातियों के साथ रहोगे ? जियोगे? विजातियों से विराग ही भला। मेरा तो सिर्फ मैं हूँ, मेरे सिवा मेरा कोई नहीं। आखिर मौत के वक्त कौन किसका होता है। क्या दादा के लिए हो पाए ? क्या पड़ोसी के साथ जा पाए ? भले ही हम सती होने का दंभ कर लें, पर ऐसा करके भी हम असत् से सत् न हो पाए। याद रखो, तुम्हारा अपना कोई नहीं है सिवा तुम्हें छोड़कर। जिसे तुम अपना समझते हो, वह तो मात्र एक अमानत है। बेटा बहू की अमानत है। बेटी दामाद की अमानत है। शरीर श्मशान की अमानत है। जिंदगी मृत्यु की अमानत है। जिसकी जो अमानत है, एक दिन वह उसे ले जाएगा। बेटा बहू का हो जाएगा, बेटी को दामाद ले जाएगा, शरीर श्मशान की राख में समा जाएगा। जिंदगी मौत से हार जाएगी। अमानत को अमानत समझिए और मुक्त हो जाइए। मृत्यु तो कसौटी है इस तथ्य को परखने की कि कौन अपना है, कौन पराया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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