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________________ अन्तर के पट खोल इतनी भी क्या जल्दी है। तृष्णा तृष्णा-बोध' से ही जर्जर होती है। वैराग्य, प्रकृति की गुणधर्मा तृष्णा से ऊपर उठना है। आत्मा के लिए प्रकृति की हर अभिव्यक्ति ‘पर' है और योगदर्शन प्रकृति के गुणों में तृष्णा के सर्वथा समाप्त हो जाने को ‘पर-वैराग्य' कहता है। पर से, अन्य से विरक्त होना ही पर-वैराग्य है। आत्मा के लिए तो घर-परिवारसंसार-पदार्थ तो क्या, शरीर भी पर ही है। इतना ही नहीं, विचार और मन भी पर हैं। चित्त के संस्कार भी पर ही हैं। ‘पर-वैराग्य' चैतन्य-क्रांति है। पर-वैराग्य यानी दूसरों से विरक्ति, अनासक्ति। एक महिला संत हुई हैं - विचक्षणश्री। बड़ी प्यारी साध्वी हुईं। वह शांति, समता और साधुता के अर्थों में सौ टंच खरी उतरीं। उस साध्वी को कैंसर की व्याधि ने आ घेरा। औरों की अपेक्षा उनकी व्याधि कुछ अधिक ही भयंकर थी। मगर उनके चेहरे पर समाधि मुस्कराया करती। डॉक्टर चकित थे, वह देहातीत थीं। सहिष्णु रही हों, ऐसी बात भी नहीं है। व्याधि के असर से बेअसर कर लिया था, वेदना की अनुभूति से ऊपर उठा लिया था विचक्षणश्री ने अपने आपको। प्रकृति से स्वयं की अलग अस्मिता मानने-जानने वाला न केवल देह से, वरन मन से भी मुक्त हो जाता है। फूल खिलता है अपनी निजता से। निजत्व के प्रति अभिरुचि ही भेद-विज्ञान की नींव है, पर-वैराग्य की बुनियाद है। पर-वैराग्य हमेशा पुरुष के ज्ञान से, आत्मा के बोध से साकार होता है - तत्परं पुरुषख्याते: गुणवैतृष्ण्यम्। साधक को जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, तब वह अपने स्वभावसिद्ध अधिकारों में रमण करता है। वह पदार्थ से ही उपरत हो जाता है। सिर्फ संसार के ही पदार्थ नहीं, वह स्वयं से जुड़े पदार्थों से भी ऊपर उठ जाता है। प्रकृति जो अणु बनकर उसके साथ जुड़ी थी, उसके साथ हमारा लगाव टूट जाता है। दोनों के भेदविज्ञान की प्रतीति का नाम ही 'विराम-प्रत्यय' है। जड और चेतन - दोनों के बीच विराम होने की प्रतीति ही ‘विराम-प्रत्यय' है। इस भूमिका में चित्त का संस्कार बिल्कुल सामान्य रहता है, ना के बराबर। जब इस प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी बंद हो जाता है, तब चित्त दर्पण-सा साफ-स्वच्छ हो जाता है, तब वृत्तियों का सर्वथा विलोप हो जाता है। यह मुक्त-दशा है। जीवन की निरभ्र आकाश जैसी दशा है। संभव है, इस दशा में आत्मा शरीर में रहे, पर वह रहना सिर्फ सांयोगिक है। जीवन में कुछ कर्ज ऐसे होते हैं, जिनका नाता शरीर के साथ होता है। जब कर्ज चुक जाते हैं, तो आत्मा पदार्थ और परमाणु के हर दबाव से मुक्त हो जाती है। यह कैवल्य-दशा है। पतंजलि ने इसे ही निर्बीज-समाधि कहा है। एक जीवन-मुक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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