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________________ वृत्ति, वृत्ति-बोध, वृत्ति-निरोध मैं धर्म को जीवन की समग्र चिकित्सा और जीवन का संपूर्ण स्वास्थ्य स्वीकार करता हूँ। जीवन की जीवंतता मात्र शरीर की निरोगता में नहीं है, वरन् चित्त की स्वस्थता में है। जीवन कोरा शरीर नहीं है। वह शरीर और चित्त का मिलाप है। उसके पार भी है। चैतन्य-गंगोत्री ही तो वह आधार है, जहाँ से जीवन के सारे घटकों को ऊर्जा की ताजी धारा मिलती है। धर्म का अर्थ किसी के सामने महज मत्था टेकना नहीं है, वरन् जीवन की धारा को बँटने-बिखरने से रोकना है। धर्म योग है और पतंजलि की भाषा में निरोध योग की पहल है – 'योगश्चित्तवृत्ति निरोध:'। मैं धर्म की परिभाषा सिर्फ निरोध तक ही नहीं जोडूंगा, क्योंकि धर्म योग है और योग निरोध से भी बेहतर है। योग हमें जोड़ता है, एक धारा से, जीवन की धारा से। योग न केवल चित्त की वृत्तियों से हमें निवृत्त करता है, वरन् चैतन्य-जगत् की ओर प्रवृत्त भी करता है। चित्त के प्रवाह का निरोध और चैतन्य-प्रवाह से योग - यही धर्म का सार है। चैतन्य-प्रेम ही तो साधना की नींव है। चैतन्य-भावना ही अहिंसा की आत्मा है। चैतन्य से प्रेम हो सकता है। प्रेम तो हमेशा अच्छा ही होता है। खतरा तो तब पैदा होता है, जब प्रेम सिर्फ मन का शरीर के साथ होता है। यह चैतन्य-प्रेम नहीं है। यह तो भोग-प्रेम है और हर भोग-प्रेम जीवन पर मन एवं वृत्तियों का प्रभुत्व है। चैतन्य-जगत् से अनुराग करने वाले के लिए न करुणा है, न वात्सल्य। उसके लिए तो सिर्फ प्रेम और मैत्री ही है। करुणा हम तब करेंगे, जब अपने से ज्यादा किसी को करुणाशील मानेंगे। वात्सल्य की बारिश हमारे द्वार तब होगी, जब दूसरों को स्वयं से छोटा मानेंगे। क्या कभी सोचा कि महावीर जैसे बुद्ध पुरुष भी अपने शिष्यों को नमस्कार करते थे ? महावीर की णमो तित्थस्म' शब्दावली की मूल भावना यही है। नमस्कार छोटे कद, बड़े कद, छोटी उम्र/बड़ी उम्र से जुड़ा नहीं होता। नमस्कार का संबंध तो चेतना से है। जीवित को नमस्कार किया जाता है और मृत को दफनाया जाता है। जिसे क्षुद्र समझते हैं, चैतन्य पुरुष की दृष्टि में उसमें भी वही विराट संभावनाएँ हैं, जो स्वयं उसमें किसी के फूल की पँखुड़ियों की तरह खिली हैं। उन संभावनाओं को मेरे भी प्रणाम हैं। मैं यह कहना चाहूँगा कि वे विराट संभावनाएँ हम सबसे जुड़ी हैं। जब तक वे आत्मसात् न हो जाएँ, तब तक सिर्फ वाणी-विलास लगती हैं। अभिव्यक्ति सशक्त तभी होती है, जब वह अनुभूति के साँचे से ढलकर गुजरती है। अभ्यास से सब कुछ सहज होता है, अगर बाहर में राहों को तलाशती आँखें जरा भी भीतर मुड़ जाएँ, चेतना सत्यद्रष्टा हो जाए, तो जीवन के देवदार वृक्षों पर बड़ी आसानी से चढ़ा जा सकेगा। जीवन के बाहरी दायरों में आनंद को ढूँढ़ती निगाहों को थोड़ा समझाएँ। आकर्षण और विकर्षण से कुछ ऊपर उठे और साधे स्वयं को प्रयत्नपूर्वक - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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