SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा 33 की ओर होती है - निर्विचार की ओर, मूल की ओर। पत्ते डालियों में समा जाते हैं, डालियाँ शाखा में, शाखा जड़ में और जड़ बीज में। बीज का वृक्ष-विस्तार से वापस बीज में आ जाना, गंगा का गंगोत्री में लौट आना ही स्वरूप में वापसी है। यह चेतना का प्रतिक्रमण है। वापसी की, प्रतिक्रमण की यात्रा कठिन है। बहना सरल है, किंतु तैरना कठिन है। भुजाओं की प्रतिष्ठा बहने में नहीं, तैरने में है। शक्ति के मूल स्रोत तुम स्वयं हो। स्वयं में स्थित हो जाओ – यही साधना की शक्ति है। 'स्वपदम् शक्तिः' - स्वयं में स्थिति ही शक्ति है। ___ साधना की शुरुआत दर्शन से है। दर्शन ही सार है और दर्शन ही शुरुआत है आध्यात्मिक जीवन की। 'दर्शन' ही नाव है, दर्शन ही किनारा है। दर्शन ही साक्षीभाव है और दर्शन ही चरित्र की आधारशिला है। कुंदकुंद की दृष्टि में भ्रष्ट वही हे जो दर्शन से भ्रष्ट है। ‘दसण भट्ठो भट्ठो' – दर्शन-भ्रष्ट ही भ्रष्ट है। अंधा वही है जो अंतर्दष्टि से वंचित है। यों तो अँधा कोई नहीं। जिसके पास आँख नहीं है, वह अंधा नहीं है। वह अपनी अन्य इंद्रियों के सहयोग से देखने जैसा आभास कर लेता है। असली अंधा वह है जिसके पास आत्मदृष्टि, अंतर्दृष्टि नहीं है। हम जरा अपने आपको देखें कि कहीं हम भी अंधे तो नहीं हैं ? ऊपर से आस्तिक दिखने वाले भीतर से कहीं नास्तिक तो नहीं हैं ? होता ऐसा ही है। आस्तिकता व्यवहार बन गई है। नास्तिकता पर्दे की ओट में आराम से पल रही है। क्या हम पहचानने की कोशिश करेंगे अपनी नास्तिकता को, अपनी अंधता और जडता को? घर-घर दीपक बरै, लखै नहीं अंध। लखत-लखत लखि परै, कटे जमफंद॥ __ मूल अस्तित्व की ओर बोध की दृष्टि हो। दीए घर-घर में जल रहे हैं, भीतर देखो। जो भीतर नहीं देखता, वह अंधा है। आम लोगों की नजरों में अंधा वह है, जिसके आँखें नहीं हैं। अमृत-पुरुषों की राय में तो अंतर्ज्योति को न देखना अंधापन है। अंतर्दृष्टि का अभाव प्राणी का आध्यात्मिक अंधापन है। ‘लखत-लखत लखि परै' -- देखते-देखते आखिर देख लोगे। स्वयं में देख लोगे, साकार में निराकार को जान लोगे। सुबह एक साधक कह रहे थे कि आपके पास आने के बाद ऐसे लग रहा है मानो मैं मन की उधेड़बुन से मुक्त हुआ जा रहा हूँ - विकल्प दशा से मुक्त। अब मैं क्या करूँ मैंने कहा, करने को अब क्या है, अब तो सिर्फ होने को है। करना-धरना हो गया, अब तो होना है, स्वयं के विश्राम में जीना है। अब.तो जो हो, उसका आनंद लेना है। हर दशा, भावदशा, कर्मदशा के प्रति जागरूक रहना है। जब आनंद का 'यह' पड़ाव आया है, तो वह भी आएगा। मुबारक है, तुम कुछ हो सके। मन की भगदड़ तुमने समझी, हृदय की धड़कन सुनी; अब सुनने हैं स्वयं के स्वर, जानने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy