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अन्तर के पट खोल
में धोक लगाने वालों को ही आस्तिक कहा जाए, तब तो संसार में, दस प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो आस्तिकता की इस जिम्मेदारी को निभाते हों। ऐसे दस प्रतिशत लोगों में निन्यानवे प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो पंद्रह मिनट धर्मस्थानों में लगाते हैं, शेष समय दुनियादारी/दुकानदारी में।
नास्तिक और आस्तिक की अब तक जो परिभाषाएँ होती रही हैं, उससे तो धरती में आस्तिक ‘पेड़ में किसी टहनी के बराबर हैं। पर मैंने पाया है कि जिन्हें हम नास्तिक कहते हैं, उनमें भी आस्तिकता की बहुत बड़ी संभावना है। आस्तिकता का कोई भी स्वरूप उनमें हो सकता है। मछुआरे मछली पकड़ने के लिए रवाना होने से पहले आकाश की ओर देखकर तीन बार भगवान् को याद करते हैं। फाँसी लगाने वाले चांडाल कहते हैं, मरने से पहले खुदा को याद कर लो। वेश्या के रूप में गंदी मछली कहलाए जाने के बावजूद उसमें आस्तिकता की कोई किरण छिपी मिल सकती है।
कहते हैं : एक बार किसी मठाधीश की मृत्यु हो गई। जिस समय वह मरा, ठीक उसी वक्त एक वेश्या भी मरी। एक के लिए पूरा शहर उमड़ा, शोभा-यात्रा निकाली गई। दूसरे के लिए म्युनिसिपल बोर्ड की गाड़ी आई और मरी हुई कुतिया की तरह उठाकर ले गई।
धर्मराज के दरबार में दोनों के लिए सुनवाई हुई। धर्मराज ने कहा, मठाधीश को झाडू निकालने का काम सौंपा जाए और वेश्या को देवलोक का आधिपत्य। वेश्या ने कहा, जी...कहने में गलती हुई है। मैं और स्वर्ग का आधिपत्य! झाडू निकालने की भी गति मिल जाए तो मैं इसे आपकी कृपा मानूंगी। मेरे भाग्य कहाँ! मैंने तो जिंदगी भर पाप-ही-पाप किए हैं। __मठाधीश भी बिगड़े। उन्होंने कहा, धर्मराज! तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ? मैं...और झाडूगिरी! यह वेश्या और देवलोक का आधिपत्य ? तुमसे तो धरती के लोग ही भले जो कम-से-कम सम्मानपूर्वक मेरी अर्थी तो निकाल रहे हैं। ध्यान से देखो, नीचे सब मेरी जय-जयकार कर रहे हैं। आप कुछ तो न्याय का सम्मान करते!
धर्मराज ने कहा- महाराज! धर्म-क्षेत्र में अन्याय नहीं होता। नीचे तुम मठाधीश होते हुए भी वेश्यागामी थे और वेश्या शरीर बेचकर भी संन्यस्त जैसी थी। सब भावदशाओं का खेल है।
धर्मराज की बात से दोनों चौंके - मठाधीश भी, वेश्या भी। धर्मराज ने पहेली सुलझाते हुए कहा – मठाधीश, तुम पवित्र वेश में रहते हुए भी रात-दिन वेश्या के बारे में सोचते रहे और रास्ता ढूँढ़ते रहे कि कैसे उसके साथ सहवास हो। वहीं वेश्या
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