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________________ द्रष्टा-भाव : अध्यात्म की आत्मा रखता हूँ जो जन्म से पहले भी था और चिता की डगर से सौ बार गुजर जाने पर भी रहेगा। ___यह सब प्रेरणा मिली जगत् का शास्त्र पढ़ने से। मैं पहले बहुत किताबें पढ़ता था। इतनी किताबें कि पढ़-पढ़कर आँखें तक कमजोर कर डालीं। जिन दिनों मैं अंतर्मुखी हुआ, उन्हीं दिनों विनोबाजी की एक बात दिल में उतर गई कि ज्ञान पर भी अपरिग्रह की कैंची चलाई जानी चाहिए। चूँकि मैं अपरिग्रह को सामाजिक और साधनामूलक धर्म मानता रहा हूँ और इसी धर्म के अनुगमन के चलते गांधीजी का मैं प्रशंसक हुआ, मुझे विनोबा की बात ऊँची। मैं जो किताबों का कीड़ा था, भगवत्कृपा कि उसने मुझे इस आदत से उपरत किया। मैं बड़े प्यार से यह बात कहँगा कि दुनिया की हर किताब हमारे लिए एक अनमोल थाती है, पर वे सारी किताबें हमारे द्वारा लिखी गई हैं। धरती पर एक किताब और है जिसका रचयिता स्वयं ईश्वर रहा है, प्रकृति रही है। यह जगत् एक अद्भुत किताब है। एक ऐसी किताब कि जिसे जब-जब भी, जितना भी पढ़ा जाएगा; उसका हर अंश नए-नए तथ्य, नए-नए सत्य और नए-नए अर्थ प्रदान करेगा। मैंने दुनिया की महानतम किताबों से बहुत-कुछ पाया है, पर जितना जगत् को पढ़कर पाया है, उतना अन्य किसी किताब से नहीं। हम जगत् को देखें, जगत् को पढ़ें, जगत् और स्वयं के साथ घटित होने वाली हर छोटी-मोटी घटना पर मनन करें। यह, इस तरह का स्वाध्याय ज्यों-ज्यों गहरा होता जाएगा, जीवन में अध्यात्म की अंतर्दृष्टि उतनी ही मुखर होती जाएगी। जीवन की उपलब्धि और ज्ञान की सार्थकता स्वयं जीवन को पढ़ने में है। जीवन की हर अच्छी-बुरी घटना-दुर्घटना, क्रिया-प्रतिक्रिया को ध्यानपूर्वक देखने में है। जीवन-दृष्टि और जीवन-बोध ही सबसे बड़ी थाती है। सारे द्वार इसी से खुलते itic महापुरुषों की साधना का एक बहुत सरल और सहज मार्ग रहा है, जिसे उन्होंने सम्यक् दर्शन कहा है। बोधपूर्वक किसी भी तत्त्व को देखना सम्यक् दर्शन है। देखना दर्शन है। श्रद्धा और आस्तिकता का अंकुरण इस दर्शन से ही संभव है। दृष्टि के अभाव में तो मनुष्य जीवन-भर धर्म के द्वार पर जाकर भी नास्तिक ही रहता है। आस्तिकता और नास्तिकता का स्वरूप बड़ा पेचीदा है। बाहर से आस्तिक नजर आने वाला महानुभाव भीतर से नास्तिक हो सकता है। यह भी मुमकिन है कि बाहर का नास्तिक भीतर में आस्तिक हो। मैंने आस्तिकों में भी नास्तिकता की चिनगारियाँ देखी हैं और कथित नास्तिकों में भी आस्तिकता के दर्शन किए हैं। यदि वेद-पुराण को मानने वाले को ही आस्तिक समझा जाए, या मठ-मंदिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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