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________________ सहज मिले अविनाशी तुम अपना हर कर्म प्रभु को समर्पित करो, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी पूजा का पुष्प बन जाएगा। सात काफी गहरा गई थी। आसमान तारों से भरा हआ था। ठंडी हवाएँ बयार-सी 'बह रही थीं। फूल और पत्तियाँ ओस से दबी/भरी थी। सब लोग अपनीअपनी चादर खींचे अपने-अपने घरों में सोए पड़े थे। रात आधी बीत चुकी थी। हठात् माँ की आँखें खुली। देखा, बेटा बरामदे में बैठा आकाश की ओर निहार रहा है। उसके होंठ फड़फड़ा रहे हैं। आँखें किसी विरहिणी की तरह भीगी हैं। माँ समझ गई, बेटा क्या कर रहा है? माँ ने पूछा, इतनी रात गए, अभी तक तुम प्रार्थना में बैठे हो ? बेटे ने कहा, माँ, जरा देखो उस पेड़ पर बैठे पपीहे को। वह भी तो इतनी रात गए, जागा बैठा है। अगर वह पपीहा अपने प्रिय की प्रतीक्षा में आधी रात तक पीऊ-पीऊ कर सकता है, तो फिर मैं क्यों नहीं कर सकता? पपीहे का पीऊ तो यहीं-कहीं गया होगा। मुझे जिसकी प्रतीक्षा है, उसके लिए तो मुझे अनेक जन्म लगाने होंगे। माँ की आँखें भर आईं। उसने कहा - तेरा प्रिय तुमसे दूर नहीं है। तुम उसमें डूब रहे हो और वह तुम में प्रकट हो रहा है। देखो, अपने भीतर रसभरी बारिश को, थिरकती हुई ज्योति को। जिंदगी की देहरी पर होने वाली यह प्रतीक्षा ही प्रार्थना है। जैसे दीपक मदिरमदिर जलता रहता है, प्रार्थना भी ऐसा ही जलना है। तन के तेल को, मन की बाती को, ज्योति से आत्मसात् होने के लिए न्योछावर कर देना होता है। परमात्मा का फूल हर ओर खिला हआ है। पत्ती-पत्ती पर उसकी मुस्कान उभर रही है। नदियों की लहरों में उसकी थिरकन है। हवा के झोंकों में उसका स्पर्श है। आँखों-आँखों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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