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________________ तुर्या : भेद-विज्ञान की पराकाष्ठा ____139 अलगाव-बोध की यह प्रक्रिया भेद-विज्ञान है। ध्यान और अध्यात्म को जीवन में घटित करने के लिए यह परम विज्ञान है। सर्वप्रथम, दिन में यह विज्ञान आत्मसात् करें। दिन का अर्थ है वह समय जब आँखें खुली रहें; आदमी जगा रहे। सारे काम जागकर ही किए जाते हैं। इसलिए जागने से ही तुर्या की शुरुआत होती है। हम जो कुछ भी करें, जो भी देखें, जिसे भी छुएँ, सब करते हुए भी स्वयं को सबसे अलग जानें। ऐसा लगे मानो यह देखना, करना और छूना महज एक सपना है। संसार एक सपना है। अपने को सपना मानना आत्म-जागरूकता को प्रोत्साहन देना है। रात को भी जो सपने आते हैं, उनके प्रति भी धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ेगी। सपना जैसे ही टूटे, उसकी असलियत को पहचानने की कोशिश करो, उसका सम्यक् निरीक्षण करो। ऐसा करने से चित्त की एकाग्रता बनेगी और शून्य उभरेगा। शून्य में उतरो और शून्य को देखो। शून्य-द्रष्टा बनो।। ___आप पाओगे कि स्वप्न खो गया। सुषुप्ति में जागरूकता/सजगता/सचेतनता अवतरित हो गई। संसार की निगाहों में हम सोए हैं, पर गीता कहेगी योगी सुषुप्ति के मंदिर में जागा है। जागृत-सुषुप्ति का नाम ही समाधि है और स्वयं को ज्ञेय से भिन्न ज्ञाता मात्र जान लेना आत्मज्ञान है। यह तुर्यावस्था है। जहाँ साधक दिखने में आम आदमी जैसा ही होता है, पर बड़ा भिन्न-ज्ञाता मात्र/साक्षी मात्र; बुद्धि और तर्क से परे रहकर, सिद्धत्व का वरण करता है। 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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