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________________ पहचानें स्वयं को-'कौन हूँ मैं ?' 123 शक्ति एकत्र की और दलदल से बाहर निकल आया। महावीर इसे संबोधि कहते हैं। बुद्ध इसे स्मृति कहते हैं। यहाँ स्मृति ही आत्मस्मृति बन जाती है। रणभेरी सत्संग का काम कर जाती है। जहाँ संबोधि है, वहीं अनुभव का सार मिल गया समझो। आत्म-स्मरण की रणभेरी बजते ही सत्संग की रणभेरी भी बजने लगती है और व्यक्ति अपने आपको पहचान लेता है। एक रणभेरी की आवाज सुनकर हाथी बाहर निकल आया था। रणभेरी तो बजा रहा हूँ, मगर तुम अभी तक सही योद्धा ही नहीं बन पाए हो। इसलिए तुम रणभेरी नहीं समझ पाओगे, तुम भगवान को कैसे पा सकोगे? जो आदमी भगवान को पाने के बाद भी उसका अनुभव नहीं करता, वह दुनिया का सबसे बड़ा बेवकूफ है। अपने आपको संभालो। कोई कितना भी बलवान हो, उसका अतिम नतीजा तो यही होने वाला है। याद करो। स्मृति को जीवित करो। रणभेरी बज रही है। सत्संग की रणभेरी। उसे समझने की चेष्टा करो। अपने आपको पूछो, मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा क्या होगा? जीवन का मूल उद्देश्य क्या है ? ये प्रश्न कभी एकांत में अपने आपसे पूछो। जीवन का अनुभव क्या बटोरा ? सार क्या है ? पैदा हुए वैसे ही मर गए, तो दुनिया में आने का औचित्य क्या रहा? जिंदगी एक नदिया है। बहती जा रही है। बहते-बहते सागर में मिल जाएगी। विलीन होने से पूर्व अपने आपको पहचान लो। मेरा स्वरूप क्या था? कहाँ से आया था? मुझे किससे संबंध रखना है ? किससे प्रतिकार करना है ? ये कोरे प्रश्न नहीं है, बल्कि स्वयं के प्रति जिज्ञासा है। अपने आप से यह पूछना कि 'मैं कौन हूँ', मन का अध्यात्म में विलय है। मैं कौन हूँ, कौन हूँ मैं, मैं कौन हूँ-अपने आपसे ही यह पूछताछ करनी है। मैं कौन हूँ, इसका उत्तर कोई और न दे पाएगा। 'मैं' ही बता पाता है 'मैं' का उत्तर। इस प्रश्न को, इस जिज्ञासा को अपना मंत्र बना लो और मंत्र को अपने अंतरंग में शांति से गहरे तक उतरने दो। ऐसा नहीं कि एक सौ आठ बार गुना-जपा और मालाओं की दस-बीस की गिनती में लग गए। और मंत्र शाब्दिक होते हैं, परंतु यह मंत्र तो बोधपरक है। एक गहरे बोध में उतरना है। शून्य अवतरित होगा और जीवन के अंतर्झरोखों से समाधान की किरण फूटेगी, जिसके प्रकाश में हम जानेंगे 'मैं' को, अपने-आपको, अस्तित्व के स्वरूप को। जो मैं' को जानने में लगा है, वह ‘पर' का वियोगी है। अपने आपको छोड़कर शेष सारे पदार्थ उसके लिए पराए हो जाते हैं। गुरु, ग्रंथ, मूर्ति और धर्म भी। यहाँ तक कि अपनी देह भी उसे अपने से अलग महसूस होने लग जाती है। जीवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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