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________________ ध्यान और प्रेम : जीवन के दो आनंद सूत्र उस दिव्य चेतना की प्यास और प्रेम से भर उठेगी । मैं ध्यान पर जितना जोर दूंगा, उतना ही प्रेम पर। आप इसे यों भी कह सकते हैं कि मैं जितना प्रेम पर जोर दूंगा, उतना ही ध्यान पर। प्रेम जगत् की खुराक है और ध्यान स्वयं की । तुम अपने ध्यान को प्रेम में विश्राम दो और तुम अपने प्रेम को ध्यान में निमग्न होने दो। इन दोनों का समन्वय और संतुलन हमें हर हाल में उस 'एक' तत्त्व से जुड़ा हुआ रखेगा। सजगता रखो कि ध्यान कभी खंडित न हो पाए और प्रेम कभी कुंठित न हो पाए । तुम्हारे प्रेम में भी ध्यान की आभा, ध्यान की सजगता अवश्यमेव हो। तुम जब भी किसी से प्रेम करो, यहाँ तक कि अपने बेटे का माथा चूमो या किसी को गले लगाओ, उन क्षणों में भी ध्यान तुम्हारे भीतर अवश्य हो । जीवन में कभी भी, किसी भी क्षण, किसी भी परिवेश में हमारी आत्मा मूच्छित और बेहोश न हो जाए, यह सजगता जरूरी है। मुझे प्रेम से प्रेम है। प्रेम जीवन को जीने की रसभरी कला है। प्रेम को जीवन 'हटा दो, तो जीवन एक दफा नीरस ही लगने लगेगा। प्रेम हमारे हृदय को सुकून देता है, चित्त को प्रसन्नता देता है और जीवन में मैत्री और माधुर्य का रस घोलता है। किसी से भी द्वेष और ईर्ष्या न होना ही प्रेम की सच्ची पूजा है । निमित्त का होना या न होना मूल्यवान नहीं है अपितु स्वयं का सदा दया, करुणा, मित्रता, सहनशीलता और क्षमा की सद्भावना से आपूरित रहना ही प्रेमपथ का अनुगमन करना है। दीनदुखी पर करुणा बरसाना तो प्रेम है ही, अपमान और अपकार करने वाले के प्रति भी सम्मान और उपकार की उदारता रखना स्वस्थ प्रेम को जीना है । जिस प्रेम में स्वार्थ है, भेदभाव है, अपना-परायापन है, वह प्रेम नहीं, मनुष्य की मजबूरी और कमजोरी है । इसीलिए कहता हूँ कि हमारे प्रेम में ध्यान की आभा हो और ध्यान में प्रेम की पूर्णता । 117 अपने प्रेम को प्रार्थना होने दो। तुम प्रेम को उसकी पूर्णता प्राप्त होने दो। शुरुआती दौर में तुम्हें दोनों अलग-अलग लगेंगे, पर हकीकत यह है कि दोनों एक दूसरे की 'सपोर्टेड लाइन' हैं। शब्दों को गौण होने दो। शब्दों में रहने वाली स्थिति को खुद के साथ रूबरू हो लेने दो । ध्यान स्थितप्रज्ञ - दशा है और प्रेम भाव - दशा । दोनों को एक रूप हो लेने दो, जीवन का बोध और आनंद अनेरा होगा । जीवन के लिए ये बातें किसी गुरुमंत्र का काम करेंगी, ऐसा विश्वास है । ‘सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्’– सत्य का ध्यान हो, शिवरूप हमारा स्वरूप हो और सुंदर हमारे हर कार्य हों। यही है दृष्टि जीवन की, जीने की, अमृत - पथ की । 000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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