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________________ 116 अन्तर के पट खोल से बढ़कर और अन्य सत्य क्या होगा? जीवन सत्य है; झूठ तो मृत्यु है। जीवन जीने वाला मृत्यु को भी जीता है। मृत्यु से डरना हमारी हार है। जीवन तो मृत्यु के पार भी है। समय पर शाश्वतता के हस्ताक्षर वही कर सकता है जो जीवन और मृत्यु के आर-पार झाँकता है। अंतर्द्रष्टा सहज मुक्त है। जीवन बिखेरने/मिटाने के लिए नहीं है। वह तो जीने और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है। हमारे पास ढेरों संपदाएँ हैं। शरीर भी हमारी संपदा है। विचार अमूल्य होते हैं। आत्मा भी हमारी संपदा है। जीवन के सारे मूल्य उसी से जुड़े हैं। संपदाएँ सुरक्षा चाहती हैं, स्वस्थता चाहती हैं, तरोताजगी चाहती हैं। जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने में समेटे रहता है, वैसे ही तो आत्म-नियंत्रण का भी अपना शास्त्र है। जो आत्म-नियंत्रित है, स्वानुशासित है, उसे कैसा खतरा और कैसा भय ? व्यक्ति ही स्वामी होता है अपनी संपदाओं का। तेरो तेरे पास है, अपने माँहि टटोल। राई घटै न तिल बढ़े, हरि बोलो हरि बोल॥ तुम्हारी संपदा तुम्हारे पास है। खोजना भी क्या, सिर्फ टटोलना और पहचानना है। तुम दुनियादारी के रंग में इतने अधिक रच-बस गए हो कि तुम्हें तो आज स्वयं की संपदा को भी टटोलने की जरूरत आ पड़ी है। ईश्वर की संभावना भी हमारे जीवन से जुड़ी है। इसलिए ईश्वर की उपासना भी अपनी उपासना है। स्वयं को टटोलना ईश्वर को ही टटोलना है। हरि बोलो हरि बोल' - उसकी स्मति ही उसकी प्राप्ति का नुस्खा है। हरि का अर्थ होता है हरने वाला। तुम उसे याद करो, वह तुम्हारे पाप हरेगा। भले ही अंधेरा हो, पर टटोलने पर वह मिल ही जाएगा क्योंकि हमसे अलग नहीं है हमारी संपदा। यदि उसने एक बार भी हाथ थाम लिया, हमारा समर्पण स्वीकार कर लिया, हमारे परमात्म-संकल्प को सर्वतोभावेन मान लिया, तो उससे गलबाँही करनी कल की प्रतीक्षा नहीं करेगी। जिसे हम हाथ समझ रहे हैं, वह हाथ नहीं, वह पारस है। फिर हम वे न रहेंगे, जो अभी हैं। हाथ यदि पारस थामे, तो लोहा लोहा कैसे रह पाएगा! हम स्वर्ण-पुरुष हो सकते हैं, उसका हाथ हमारी और बढ़ा हआ है। आवश्यकता है अपना हाथ बढ़ाने की, अपने संकल्प और अपने निष्ठा-मूल्यों की। _ 'तत्प्रतिषेधार्थं एकतत्त्वाभ्यास:'- जीवन में एक तत्त्व का, एक रूप का अभ्यास हो। चित्त के विक्षेपों, जीवन के अंतरायों को बिखेरने के लिए हम एक तत्त्व से अपना संबंध जोड़ें। वह पहले तत्त्व हो तुम स्वयं । परमात्मा तुम्हारी ही पराकाष्ठा का नाम है। ऐसा समझो कि तुम किरण हो और परमात्मा सूरज । तुम सूरज की किरण हो और वह किरण का आधार। तुम जब भी अपने आप पर ध्यान दोगे, तुम्हारी आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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