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ॐ : सार्वभौम मंत्र
ॐ में वह सूक्ष्म मंत्र - शक्ति है जिससे अंतराय टूटते हैं और चेतना का ज्ञान होता है।
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ष्टि का सूक्ष्मतम महामंत्र है ॐ । दिखने में छोटा-सा, किंतु परिणामों में वह अनंत शक्ति का स्वामी है। बीज से बरगद का विकास होता है और बरगद पुन: बीज में समाहित हो जाता है। दुनिया के सारे आध्यात्मिक रहस्य इसी तरह ॐ से नि:सृत हुए हैं और पुनः ॐ में ही समाहित होते हैं ।
'ॐ' की ध्वनि - संहिता अत्यंत सूक्ष्म है । यह अखंड शब्द है । इसके खंड और विभाग करने के प्रयास तो किए गए हैं, किंतु इससे 'ॐ' की अखंडता को कोई चोट नहीं पहुँचती है। हाँ, यदि 'ॐ' को खंडित न किया जाता, तो शायद विश्व के सारे धर्मों का एक ही मंत्र और एक ही प्रतीक होता, और वह है ॐ ।
'ॐ' के मुख्यतः तीन खंड किए गए हैं। 'अ', 'ऊ', 'म' - अर्थात् 'ए', 'यू', 'एम' । संस्कृत से निष्पन्न सभी भाषाओं का प्रथम स्वर 'अ' है। 'अ' अनन्तता का वाचक है। 'अ' आश्चर्य का द्योतक है। जब कोई व्यक्ति बोलते-बोलते अटक जाता है, तो उसके मुँह से अटकाहट के रूप में 'अ' ही निष्पन्न होता है । 'अ' तो आदि ध्वनि है । 'अ' से पूर्व कोई भी वर्ण होठों से निकल नहीं सकता। यदि किसी वर्ण से 'अ' का लोप कर दिया जाए, तो वह वर्ण से सीधा व्यंजन बन जाएगा। संपूर्ण भाषा - तंत्र की वैसाखी 'अ' ही है; इसलिए 'ॐ' से अनुस्यूत स्वीकार करना है।
कहते हैं जब पाणिनि ने शिव का डमरू - नाद सुना, तो उसके नाद में पाणिनि को चौदह सूत्र सुनाई दिए । सारे सूत्रों का शिरोमणि 'अ' बना। 'अ' के हटते ही शब्द की पूर्णता को लँगड़ी खानी पड़ती है । 'अ' की आदिम पराकाष्ठा को स्वीकार करने के कारण ही श्रमण-परंपरा ने अपने धर्म चक्र प्रवर्तकों को तीर्थंकर कहने के बजाय अर्हत् और अरिहंत कहना ज्यादा उचित माना । वे तीर्थकर की वंदन विरुदावली
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