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________________ अन्तर के पट खोल के दायरे में फलता- - फिसलता रहता है। आखिर दूसरों के शब्दों से मिलेगा क्या ? सम्मान मिल जाएगा, प्रशस्तियाँ मिल जाएँगी, प्रशंसा मिल जाएगी। मात्र शब्दव्यवस्था को व्यक्ति ने अपना सम्मान और स्वाभिमान मान लिया है। यह प्रशंसा नहीं, मात्र छलावा है, अपने आपको मात्र शब्दों से ही भरना है । 'सुधाजी' कह रही थीं कि मैंने अखबार पढ़ना छोड़ दिया, क्योंकि अखबार पढ़ना तो स्वयं को शब्दों से भरना है। 104 धन्यवाद ! अंतर्यात्रा तो नि:शब्दता से प्रारंभ होती है। लोगों में अखबार पढ़ने की आदत इतनी आम हो गई है कि उन्हें सोने से पहले तो जासूसी उपन्यास चाहिए और सुबह जगकर बैठते ही राजनीति की करतूतों को बताने वाला अखबार चाहिए। क्या हमें जासूसी करनी है या राजनीति के दाव पेंच लड़ने हैं ? आश्चर्य तो तब होता है, जब संत-महात्मा और साधु-मुनि लोग भी अखबारों को पढ़ने में रोजाना अपने दो-चार घंटे बरबाद करते हैं । अखबार राजनीति की शतरंज मात्र बन गया है । पता नहीं, उन्होंने नि:शब्द और निर्विकल्प होने के लिए संन्यास लिया है या अपने अंतर्जगत् को शब्दवेत्ता और विचारक बनाने के लिए | धर्मशास्त्र पढ़ते, तो बात जँचती भी। मुझे बड़ा ताज्जुब होता है, जब मैं किसी संतमुनि को महज व्याकरण के सूत्र रटते हुए देखता हूँ। वह मुनि जीवन के दस-बारह साल तो संस्कृत-व्याकरण के सूत्रों को रटने और सीखने में लगा लेता है। अरे भाई । तुम्हें तो मुनि बनना है, पंडित नहीं । पंडित तो बहुत से प्रोफेसर हैं, किंतु वे प्रोफेसर मुनि नहीं हैं। संतत्व तो जीवन की सम्राटता है। वह स्वयं के अहोभाव में डूबना है । मैंने पाया कि एक साठ वर्ष के वृद्ध व्यक्ति ने संन्यास लिया और दूसरे दिन ही उसके गुरु ने उसे पाणिनि का व्याकरण पकड़ा दिया । अब बेचारा वह बूढ़ा संत सुबह-शाम ‘अइउण्, ऋलृक्' जैसे सूत्रों को रट रहा है। मृत्यु उसके सामने खड़ी है। क्या ये भाषा-पढ़ाऊ सूत्र उसे बचा पाएँगे अथवा डूबते हुए के लिए तिनके का सहारा बन पाएँगे ? आचार्य शंकर कहते हैं भज गोविंदम् भज गोविंदम्, भज गोविंदम् मूढमते । सम्प्राप्ते सन्निहिते काले, नहि नहि रक्षति डुं♚ करणे ॥ मात्र शब्दों के भार से अपने को मत भरो। अनाहत नाद तो नि:शब्दता को पहली शर्त मानता है। यदि शब्द को ही साधना है, तो उस शब्द को पकड़ो जिससे सब प्रकट हुए हैं - - - साधौ सबद साधना कीजै । जेहि सबद तें प्रगट भये सब, सोई सबद गहि लीजै ॥ उसी परम शब्द को पकड़ो। ॐ की ही प्रतिध्वनि सुनो। ॐ में ही रस लो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003869
Book TitleAntar ke Pat Khol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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