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परमेश्वर हमारे पास
है
घुल-मिल जाते हैं। शब्द से ज्यादा ताकतवर तुम्हारी चेतना है, तुम्हारा अस्तित्व | तुम 'अपने अस्तित्व में विश्राम लो और अनंत आकाश की ओर ध्यान धरते हुए ईश्वरीय विराटता की ओर जुड़ते जाओ। जब तुम पुन: स्वयं में लौटने लगोगे, तो तुम पाओगे कि ब्रह्मांड का सारा अस्तित्व ही तुममें उतर रहा है। तुम स्वयं में उतनी ही ऊर्जा का अनुभव करोगे, जितनी कि इस ब्रह्मांड में व्याप्त है ।
ईश्वर की धारा को स्वयं में लेने के लिए पहले उसके योग्य पात्र होना पड़ता है। तुम अमृत को अपने पात्र में सुरक्षित रख सको, इसके लिए तुम्हारे पात्र में योग्यता चाहिए। तुम अपनी मानसिक ऊर्जा को आकाश से जोड़ो, आकाश की अतींद्रिय ऊर्जा तुमसे जुड़ती चली जाएगी। जब मैं किसी को नमाज अदा करते देखता हूँ, तो मुझे प्रार्थना की वह सबसे बेहतरीन मुद्रा नजर आती है। वज्रासन में बैठकर हाथों की हथेली को आसमान की ओर उठाते हुए जो लौ से लौ लगाई जाती है, वह अपने आप में प्रार्थना का एक जीवंत स्वरूप है। प्रार्थना की शक्ति को जन्म देने के लिए व्यक्ति का हृदयवान होना जरूरी है। हृदय से उठने वाली प्रार्थना लौ ही, लौ से लौ लगाती है।
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ईश्वरीय चेतना से जुड़ने का सबसे बेहतरीन तरीका यही है कि तुम हृदय में विश्राम लेते हुए आकाश की ऊर्जा से जुड़ो। तुम जगत् के दुःखों को हृदय में पी लो और हृदय की शुभकामनाएँ जगत् की ओर लौटा दो। तुमने हृदय में जगत् का जो जहर पीया है, हृदय रूपांतरण का केंद्र है, वह जहर को बदल देता है। जब तुम अपने हृदय से सबके प्रति शुभकामनाएँ लौटाते हो, तो वही अमृत बनकर जगत् का कल्याण करता है।
जब ईश्वर के ध्यान में बैठो, तो अपने में उसका अनुभव करो। जब जगत् से रूबरू होओ, तब जगत् में उस जगदीश्वर को निहारो । भीतर भी वह, बाहर भी वह । शुभ में भी वह, अशुभ में भी वह । गरीबी में भी वह और अमीरी में भी वह । 'सोहम्’...मैं वह ही हूँ। 'तत्त्वमसि' - तू वह ही है । जगत् एक खेल है, एक व्यवस्था है, एक योगानुयोग है, एक संतुलन है, जिसका नियामक 'वह' है। कोई पुरुषार्थशील व्यक्ति कहेगा, मेरी व्यवस्थाओं का नियामक मैं हूँ। यह 'मैं' वास्तव में उसी का ही स्वर है । प्राणीमात्र में जो जीवन की ज्योति जल रही है, वह उस ज्योतिर्मय का परिणाम है। आत्मा में ही ईश्वर का अंश है। अंतरात्मा की आवाज से जीना ही धर्म है। स्वयं को जगत् की इहलीला में मूच्छित न होने देना ही मुक्ति है । यही है सार धर्म, मुक्ति और ईश्वरीय पथ का ।
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