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है टाइम और दूसरा है स्पेस। टाइम यानी समय; काल-चक्र। स्पेस यानी खालीपन रिक्त आकाश। समय परिवर्तन लाता है और आकाश परिवर्तन होने के लिए स्थान देता है। प्राणी मात्र में निहित आत्म-तत्त्व मानो आकाश स्वरूप ही है। आप जिस भवन में बैठे हैं उसमें जहाँ-जहाँ खालीपन और रिक्तता है वह हर रिक्तता वास्तव में आकाश ही है। रिक्तता का नाम ही आकाश है। आकाश नाम की कोई चीज़ दुनिया में नहीं है। हम ऊपर की ओर देखते हैं तो हमें आकाश दिखाई देता है। हमें लगता है कि पृथ्वी एक धरातल है जिस पर हम खड़े हैं और आकाश दूसरा धरातल जो पृथ्वी के माथे पर है। हक़ीक़त में आकाश का कोई धरातल नहीं है। जो चाँदसितारे हमें ऊपर आकाश में दिखाई देते हैं वे आकाश के किसी धरातल पर टिके हुए नहीं हैं। पृथ्वी अपने गुरुत्वाकर्षण पर केन्द्रित है और सूरज, चाँद सितारे अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण। आकाश ऊपर भी है, नीचे भी है। आकाश तो हम में भी है, आकाश-फूलों में भी है। वह हवा में उड़ते पक्षियों में भी है, और पानी में तैरती मछलियों में भी है। आकाश का संयोग हो, सहयोग हो तो ही दो अणु आपस में एक दूसरे से संबद्ध हो सकते हैं, मिश्रित हो सकते हैं। बगैर आकाश के तो साकार होना ही नामुमकिन
आदमी को अगर आकाश का संदर्भ समझ में आ जाए तो वह स्वयं ही आकाश-स्वरूप हो जाए। मन की उठापटक स्वतः ही विलीन हो जाए। स्थूल शरीर में निहित सूक्ष्म शरीर उसे ज्ञात हो जाए। यँ मन को केन्द्रित करना चाहो तो मन देवों का वरदान पाकर भी केन्द्रित नहीं हो पाता, पर जैसा आकाश हम बाहर देखते हैं वैसा ही भीतर देखने लगें, तो देह का भाव और मन का भाव स्वत: बिखर जाता है। भीतर-बाहर का आकाश एक हो जाता है।
भीतर के आकाश में प्रवेश करने के लिए पहले हम बाहर के आकाश में प्रवेश करें। जिस समय आकाश पूरी तरह निरभ्र हो, बादल रहित, उस समय या तो आराम-कुर्सी पर बैठ कर या आराम से लेटकर आकाश को देखें, देखते रहें, निश्चल भाव से देखते रहें। देखने में इतने लयलीन हो जाएँ कि देखने वाला भी आकाश में खो जाए, तभी तत्क्षण हम पाएँगे
शून्य में समग्रता की खोज / ७७
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