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बेहतर होगा हम ध्यान धरें। अन्तरमन में उठती-बैठती ऊर्जा-तरंग का ध्यान धरें। निमित्तों के उपस्थित हो जाने पर चित्त में उठने वाले संवेगउद्वेग पर ध्यान धरें। जैसे ही हम अपने प्रति अपना ध्यान लाएँगे चित्त की उलट-बांसियाँ मौन हो जाएँगी। नतीजा यह होगा कि पराजय के कगार पर खड़ा इन्सान फिर भी जीत जायेगा। जितेन्द्रियता का एक चरण पूरा हो जायेगा।
हमारी जीवन - शक्तियाँ रूपांतरित हों, चेतनागत नई शक्तियों का जन्म हो, जीवन और जगत में नई सम्भावनाओं का अभ्युदय हो। ध्यान भीतर होने का अभ्यास है। जीवन की बहिर्मुखी ऊर्जा पर नियंत्रण है। ऊर्जा की वापसी है, पंछी की नीड़ में अन्तर्यात्रा है। बाहर से भीतर उतरो, भीतर की उच्छृखलताओं को पहचानो, उन्हें अपने से अलग देखो। जैसे ही हम उन्हें अपने से अलग देखेंगे हमारी ओर से उन्हें मिलने वाली ऊर्जा मंद पड़ जाएगी और यों उनका उत्ताप ठंडा पड़ जायेगा। भीतर की उच्छृखलता, भीतर के कषाय, भीतर का शोरगुल थमते ही अन्तरमन मानो शांति का उपवन हुआ, आनन्द का नन्दनवन हुआ। यानी तुम मन की वैतरणी से पार लगे, अपनी मौलिक शांति और निजता को उपलब्ध हुए। आत्मविश्वास जगाओ और आगे बढ़ो।
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५६ / ध्यान का Jain Education International
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