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________________ शक्ति के सार्थक सदुपयोग की जब बात आती है, तो महाभारत का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। कौरव और पांडव साम्राज्य में समान-संभागी थे लेकिन कौरवों ने पांडवों को धकेल दिया और स्वयं सत्ता पर काबिज हो गए। अधिकारों के बावजूद पांडव असहाय-से हो गए, उन्हें खंडप्रस्थ हाथ लगा, लेकिन उन्होंने अपनी शक्ति को सृजनात्मक रूप दिया और खंडप्रस्थ 'इंद्रप्रस्थ' के रूप में तब्दील हो गया। इसके विपरीत रावण जैसी मिसालें भी हैं, जिन्होंने अपनी शक्ति का उपयोग विध्वंस रूप में किया। यही वजह है कि जो अपनी शक्ति को विध्वंस के मार्ग पर डाल देते हैं उनके पुतले ही जलाए जाते हैं। विध्वंसमुखी प्रवृत्तियों को नव-निर्माण के क्षितिज प्रदान किये जा सकते हैं। गालियों से भरे होठों को गीतों का रस और संस्कार दे दिया जाए, तो होंठ हम सबको मुस्कान दे सकते हैं। जो हाथ वृद्धजनों की सेवा के लिए हैं, गिरे हुओं को उठाने के लिए हैं, यदि मनुष्य उन हाथों का उपयोग किसी को लाठी मारने या धक्का देने में करता हो, तो इसका दोष शक्ति को नहीं स्वयं मनुष्य को है। हम काँटों में से फूलों को खिलते हुए देखें, खाद गोबर की दिए जाने के बावजूद पौधों में से सुवास को फैलते हुए पाते हैं, तो हम अपने जीवन की विपथगामी शक्तियों को परिवर्तन की नई पुरवाई क्यों नहीं दे सकते! हमने क्रोध के दुष्परिणाम देखे हैं और प्रेम के शुभ परिणाम भी। यदि हम क्रोध के बजाय प्रेम तथा घृणा के बजाय करुणा को स्वीकार करें, तो इससे हमारा जीवन तो ख़ुशहाल होगा ही, औरों के साथ हमारे सम्बन्ध भी मधुर और मजबूत होंगे। मनुष्य आत्मविश्वास की कमी है। उसे जैसी परिस्थितियाँ मिली हैं, वह उनमें सुधार करने की बजाय, उन्हीं में ज़िन्दगी गुजार देता है। उसमें रूपान्तरित होने की कामना नहीं है। अगर कामना है भी, तो रूपान्तरित हो जाने का आत्मविश्वास नहीं है। मनुष्य का अंश अवश्य है, किन्तु पेड़पौधों और जीव-जन्तुओं-सा नहीं है, जो अपने में सुधार और विकास न कर सके। माना मनुष्य प्रकृति के कई धर्मों के आगे नतमस्तक है, किन्तु जीवन का कोई तयशुदा मार्ग नहीं होता है। मनुष्य चाहे तो अपने मार्ग को बदल सकता है। अच्छा होगा मनुष्य अपने मन में घर कर चुकी अकर्मण्यता ५४ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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