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क्या होगा! मनुष्य का सबसे बड़ा और सबसे पहले मन्दिर तो वह स्वयं है। शरीर साक्षात् मन्दिर है। शरीर के साथ उसी भावना के साथ पेश आओ, जैसा आप किसी मन्दिर या तीर्थ के प्रति समर्पित होना चाहते हैं। हम स्वयं एक ऐसे मन्दिर हैं जिनके गर्भ में और कई मन्दिर समाए हैं। स्वस्थ और पवित्र शरीर का मालिक होना शरीर को मन्दिर बनाना है। सोच और चिन्तन को सत्योन्मुख, शिवोन्मुख, सुन्दरतर बनाना मन को मन्दिर बनाना है, मधुर
और सौम्य वाणी का उपयोग करना वाणी को मन्दिर बनाना है। ध्यान हमारे तन को मन्दिर बनाता है, वचन को मन्दिर बनाता है, मन को मन्दिर बनाता है। तन का स्वस्थ रहना, वचन का मधुर होना, मन का सौम्य और पवित्र होना, जीवन को मन्दिर ही तो बनाना हुआ है।
तन पूरी तरह जीवन-भर स्वस्थ रहे, कठिन है। अधर हर हाल में मधुर रहें, दुष्कर है, मन सदा आत्मलीन, पवित्र और मन्दिर के दीपक की तरह अखंड रहे, कम मुमकिन है। जो शान्त मन हैं, मधुर वचन हैं, स्वस्थ तन के स्वामी हैं, सृष्टि और प्रकृति की उन पर मेहरबानी है। तन का धर्म वृद्धत्व और रुग्णता है। मन का धर्म चंचलता और तमस् की ओर बहना है। जीवन की सफलता के लिए आत्म-पौरुष चाहिये, आत्म-विश्वास चाहिये। मन की चंचलता और कायरता न केवल हमारी सफलताओं को बाधित करती हैं, वरन् इनके चलते हमें असफलताओं का ख़ामियाजा भी भुगतना पड़ता है।
ध्यान का अर्थ है स्थिरता, लीनता, सजगता। हम असत् और गलत के प्रति रहने वाले अपने ध्यान को हटायें और सत्य तथा अमृत के प्रति ध्यान को ऊर्ध्वमुखी बनाएँ। आखिर यह तय है कि पत्नी की याद में रमने वाला मन परमेश्वर की याद में रसलीन नहीं हो सकता। आदमी जीवन में पाना तो चाहता है राम, लेकिन जिसमें उलझा है वह है काम। काम-रस
और राम-रस दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में इसीलिए निर्लिप्तता की बात कही गयी है। तुम काम का उपयोग करके भी उससे अलिप्त हो सकते हो। सुकरात ने कहा था मनुष्य मन के विपरीत उद्वेगों को शान्त करने के लिए जीवन में एक बार काम का उपयोग करे। इतने पर भी मन काम की ओर मचलता लगे तो वर्ष में एक बार सेवन कर ले। अगर किसी का तन-मन माया और तमस् से बेहद ही घिरा हुआ हो, तो
४० / ध्यान का विज्ञान
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