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________________ खाकर वैसे ही लौट आते हैं जैसे लहर किनारे से टकराकर लौट जाया करती है। स्वयं की अंतश्चेतना तक शब्द और तर्क का प्रवेश नहीं है। शास्त्र भी वहाँ पर प्रवेश नहीं कर सकता। शुरुआती दौर पर शास्त्र उपकारी होते हैं, पर आखिरी चरण में हम स्वयं ही अपने और दुनिया के शास्त्र हो जाते हैं। अंतर्जगत तक न कोई वस्तु पहुँच सकती है, न माता-पिता और न बीबी-बच्चे, वहाँ तो हम स्वयं ही पहुँच सकते हैं । वस्तु किसी कमरे में रखी जा सकती है, किन्तु हमारे अंतर्जगत में वस्तु को उतारने का, वस्तु को संग्रहीत रखने का तरीका नहीं है। वहाँ तो वस्तु के प्रति आसक्ति रखी जा सकती है, वस्तु को नहीं। बीबी-बच्चों के प्रति राग और मूर्छा रखी जा सकती है, किन्तु बीबी-बच्चों को नहीं। अंतर्जगत न तो वस्तु है और न व्यक्ति ही है। वह तो अस्तित्व है। वहाँ तो तुम हो, तुम्हारा अपना ही निजत्व का व्यक्ति है। भीड़-भाड़ की जिंदगी में, भीड़ के मनोविज्ञान में हमारे अपने निजत्व की पहचान होना ठीक वैसे ही है जैसे अंधियारे के बीच किसी दीये का ज्योतिर्मय होना है। हर व्यक्ति अपना स्वामी स्वयं बने, अंतर्जगत के साम्राज्य का हर आदमी सम्राट हो। जीवन के विज्ञान की हमें यही प्रेरणा है। मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अंत:करण से प्रेरणा प्राप्त करे और स्वयं की अंतस्-प्रेरणा से जीये। जगत में चाहे जितना अंधकार क्यों न हो, अंतर्-प्रेरणा से जीने वाला स्वयं के ही प्रकाश से जीता है। जगत के व्यवहार के लिए सूर्य का प्रकाश है। सूर्य के अभाव में चंद्रमा और टिमटिमाते तारे मनुष्य को उसकी राह दिखाते हैं। अगर ऐसा न हो तो दीपक की रोशनी मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए उपकारी होती है और वह भी न हो तो शास्त्र के शब्द मनुष्य के प्रेरक-तत्त्व बनते हैं। किसी समय याज्ञवल्क्य ने जनक को कहा था, 'वत्स! सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, दीपक, शब्द इनमें से किसी का भी प्रकाश न हो, तो आदमी अपनी आत्मा की ज्योति में जीये, स्वयं के प्रकाश से जीये।' मनुष्य के अंत:करण से मिलने वाली प्रेरणा उसे सत्य की ओर से मिली प्रेरणा है। जिसकी प्रेरणा और मार्ग सत्यमय है, उसका जीवन स्वतः ही शिवकर, स्वस्तिकर, सुंदरतर होता है। निजता की खोज / ५ .. Jain Education International For Personal & Private Use Only 'www.jainelibrary.org
SR No.003865
Book TitleDhyan ka Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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