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ध्यान और कर्म का समन्वय
ध्यान और कर्म दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। ध्यानपूर्वक कर्म को संपादित करना ही ध्यान की उपयोगिता और कर्म की पूर्णता है। ध्यान का उपयोग हम यह न समझें कि यह किन्हीं गुफावासी संन्यासी भर के लिए होगा। ध्यान उस हर आदमी के लिए है जो अपने हर कार्य को उसकी सफलता के साथ संपन्न करना चाहता है। कर्म मनुष्य की अनिवार्य प्रवृत्ति है। भगवान कृष्ण ने गीता में मनुष्य को कर्मयोग की प्रेरणा दी है। गीता की रचना से पूर्व भगवान ऋषभदेव ने मनुष्य को कृषि क्षेत्र में सन्नद्ध रहने के लिए प्रेरित किया है। कर्म का अर्थ है कार्य, कर्म का अर्थ है प्रवृत्ति, कर्म का अर्थ है पुरुषार्थ। कर्म से ही कर्मठता का जन्म होता है। जो कर्म में सन्नद्ध नहीं है वह कर्मयोगी नहीं है। वह निष्कर्मी निठल्ला है।
ध्यान और कर्म का समन्वय / ९३
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