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हुई, ख़ुश थी कि चलो अब मेरा जीवन आनंद से बीतेगा। पर मेरी बदकिस्मती कि मेरा पति चल बसा। मेरे पास एक छोटी-सी बच्ची है, तीन साल की। अब आप बताइए, मैं क्या करूँ?' अपनी इज्जत बचाने के लिए मैंने किराये का एक कमरा लिया है, पर किराया चुकाने के लिए मेरे पास अब पैसे नहीं बचे। दो सोने की चूड़ियाँ थीं, मैंने बेच दीं। उससे छ: महीने गुज़ार दिए। मैंने कहा -'बहिन, आप मुझसे क्या चाहती हैं?' बोली, 'साहब! पन्द्रह दिन के राशन की व्यवस्था हो जाए।' मैंने कहा – 'हो जाएगी बहिन।'
उसने जो कहानी बताई, मैंने दो-चार लोगों से पता किया तो पता लगा बात सच है। मैंने कहा - बहिन, तुम पन्द्रह दिन की छोड़ो, मैं जिंदगी भर की ज़वाबदारी अब अपने कंधे पर लेता हूँ। पर बहिन, तुम इस तरह से माँगती रहोगी तो आज मुझसे माँगा, कल किसी और के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। मैं नहीं चाहता कि अगर मैंने तुम्हारी ज़वाबदारी अपने कंधे पर ले ली है तो तुम अब इस तरह से माँगती फिरो।
माँगना पाप है। मेरे जैसा व्यक्ति यही मानेगा। मैं संत बन गया। संत कुछ लोगों से पैसा माँगते हैं, मैं नहीं माँगता। मैं अपने संत वेश को बेचता नहीं हूँ। किसी से पैसा नहीं माँगता। बहुत इज़्ज़त की जिंदगी जीते हैं और ईश्वर ने जो हमारी औकात और ताक़त बनाई है, उसे जनहित में लगाते हैं। हम लेते नहीं हैं। अगर आपने यहाँ से बीस रुपये की किताब भी खरीदी है तो उसमें पाँच रुपया हमने लगाया है। घाटा खाकर सेवा करने वाले लोग आपने नहीं देखे होंगे। जैसे कोई व्यक्ति एक मंदिर बनाता है, एक करोड़ रुपया खर्च करता है, पर पचास लोग वहाँ पर दर्शन करने के लिए नहीं जाते। मैं मानता हूँ कि एक करोड़ का उपयोग पचास लोग करते हैं। और हमारी कोई एक किताब छपती है पचास हज़ार रुपये खर्च आता है। उन दो हजार प्रतियों को पढ़ने वाले दस हज़ार होते हैं। एक किताब अपने आप में घर-घर पहुँचने वाला एक मंदिर ही है जो लोगों के तन-मन को पावन करता है। हम चाहें तो किताबें लोगों को नि:शुल्क भी बाँट सकते हैं, पर उसकी क़ीमत फोकटिया जितनी होती है। भले ही कोई आदमी अपना नाम मोफतलाल क्यों न रख ले पर इससे वो मुफ़्त का होता नहीं है, बड़ा क़ीमती होता है।
मैंने उस बहिन से कहा – 'यह रोज़-रोज़ माँगना बंद करो, मैं अगर आपको
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