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________________ ध्यान ः साधना और सिद्धि होता है, वह नहीं होना है, इसलिए नहीं होता । फिर अनहोनी से कैसा डर रखना । साधक तो सदा-सर्वदा सरल-सौम्य-सुवासित रहे । जैसे सागर किनारे खड़ा नारियल का पेड़ भले ही सागर का खारा जल स्वीकार करता जाता है, लेकिन जब फल लौटाता है तो डाब और नारियल के रूप में । शीतल-मधुर-स्वादिष्ट जल; धवल-सौम्य-सरस गिरी। ___ तुम शांत मन के स्वामी बनो । व्यर्थ सोचो मत । सोचने जैसा कुछ नहीं है। जागो । जाग रहा हूँ, ऐसा जानो । देहानुभूति की बजाय द्रष्टा हूँ, ऐसा बोध प्रवर्तित करो। अपने बोध के दीप को हाथ में रखकर जीवन और जगत के पथ पर बढ़ना लोकचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन है। ___ आर्तध्यान और रौद्र ध्यान का तमस हमारे जीवन से कम होता जाए, धर्मध्यान और शक्ल ध्यान का प्रकाश हमारे जीवन के क्षितिज में उभरता रहे । हमारा जीवन रोशन होता जाए । प्रकाशित होता जाए । ध्यान का यह विज्ञान हर व्यक्ति अपने हृदय में उतारे । साधक साधना की ओर बढ़े, पर मैंने ये जो कुछ संकेत दिए हैं, उन्हें सदा ध्यान रखें। चित्त की धारा को राग-द्वेष के संकल्प-विकल्प से मुक्त रखें। स्वयं को सदा आत्मविश्वास और आन्तरिक शांति से ओतप्रोत रखें । भगवान करे हम सभी प्रकाश के स्वामी बनें, धर्म के, शुक्ल ध्यान के स्वामी बनें। नमस्कार । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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