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________________ मनुष्य का मन और ध्यान का विज्ञान पृथकत्व का अहसास होता है, जिससे मनुष्य को स्वयं के निजत्व और एकत्व का भान होता है, जिससे वह क्रियाओं से निवृत्त होता है और जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने अन्तर्मन की, अचेतन मन की सूक्ष्म वृत्ति और क्रिया से मुक्त होता है उस हर ध्यान, हर प्रवृत्ति, हर दृष्टि का नाम शुक्ल ध्यान है। यही तो वह ध्यान है, जिसके सध जाने पर चित्त का पूर्ण निरोध होता है । इस ध्यान के सध जाने पर व्यक्ति उन ऊँचाइयों का स्पर्श करता है जिसे कैवल्य कहते हैं । यहीं व्यक्ति बोधि ज्ञान और बोधि-लाभ को उपलब्ध होता है । मनुष्य तो रहता है, पर मन से मुक्त हो जाता है । मन विसर्जित हो जाता है, मात्र चैतन्य-स्वरूप शेष रहता है । तब ऐसा होता है कि महावीर के सामने गोशालक आता है और धुँआधार अपशब्द कहता है, उनका अपमान करता है, मजाक बनाता है । महावीर के सामने दो-दो पात्र एक जैसे होते हैं । एक ओर गोशालक, दूसरी ओर गौतम गौतम महावीर की आज्ञा में और गोशालक महावीर को बेइज्जत करने में । लेकिन शुक्ल ध्यान ऐसा कि महावीर प्रतिक्रिया - मुक्त रहते हैं । अपमान के बदले भी मुस्कान लौटाते हैं । यहाँ तक कि गोशालक अग्नि और तेजोलेश्या का प्रयोग भी कर लेता है, महावीर तब भी मौन और शीतल रहते हैं । महावीर उसकी तेजोलेश्या को भी स्वीकार कर लेते हैं । 1 बुद्ध को कोई ब्राह्मण अनगिनत गालियाँ देता है और जब गालियाँ देते-देते थक जाता है, तब बुद्ध केवल इतना ही कहते हैं, 'ब्राह्मण मुझे इतनी-सी बात बताओ अगर तुम्हारे यहाँ कोई अतिथि आए और तुम उसके लिए थाली परोसो और वह खाना न खाए तो वह भोजन किसके पास रहेगा ।' ब्राह्मण ने कहा 'सीधी-सी बात है अगर भोजन मैंने परोसा है और वह अतिथि न खाए तो मेरे पास ही रहेगा ।' बुद्ध ने कहा, 'तुमने मुझे भोजन परोसा, मैंने स्वीकार नहीं किया ।' जहाँ इस तरह का चिंतन है, ऐसी दृष्टि है, ऐसा ध्यान है, महावीर इसे शुक्ल ध्यान की संज्ञा देते हैं । ८१ धर्मध्यान वैराग्य का आधार है, जबकि शुक्ल ध्यान वीतरागता का । वैराग्य संन्यास है, राग संसार है, जबकि वीतरागता संसार और संन्यास से ऊपर उठ जाना है । वीतराग प्रिय-अप्रिय, स्व- पर, हीन - महान की हर भेद-रेखा से ऊपर उठ जाता है । वह आत्मा में जीता है। आत्मा में जीना ही पूर्णता की अनुभूति करना है । वीतराग तो सदा-सर्वदा आनन्दित रहता है, कृतकृत्य रहता है । जो होता है, उसे संयोग भर मानता 1 1 है । जो होता है, वह होना है, इसलिए होता है, फिर होनी से कैसा बचना । जो नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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