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________________ ध्यानः साधना और सिद्धि मुझे प्रिय है, क्योंकि उसके साथ मेरे जीवन की धाराएँ जुड़ी हुई हैं । कहते हैं : भगवान ने एक आठ वर्ष के बालक को संन्यास दे दिया। था तो वह राजकुमार, लेकिन किन्हीं जन्म-जन्मान्तरों का पुण्योदय कि ले लिया संन्यास । जीवन में संन्यास की बातें करना बहुत सरल है, लेकिन संन्यास का फूल खिलना परम सौभाग्य है । कहीं परम भगवत् कृपा होती है, तब जीवन में संन्यास घटित होता है, संन्यास की क्रान्ति होती है और संन्यास का कमल खिलता है । वह आठ वर्ष का बालमुनि सुबह निवृत्ति के लिए जंगल की ओर गया। साथ में अन्य संत भी थे। सबने अपने-अपने स्थान का चयन किया और बैठ गए। लेकिन बच्चा तो आखिर बच्चा ही है । वह तो झटपट उठ गया। देखा रातभर बारिश हुई है, पानी का नाला बह रहा है। उसे अतीत की याद हो आई कि वह अपने उद्यान में चम्पा के साथ नौका खे रहा था कि किसकी नौका आगे जाएगी । मेरी नौका आगे बढ़ी थी, लेकिन चम्पा ने होशियारी की और मेरी नौका को डूबो दिया । तब मैंने चंपा को चाँटा जड़ दिया था और चंपा ने कहा था मैं तुम्हें देख लूँगी, मेरी नाव आगे बढ़ गई है और तुम्हारी नाव डूब गई है । बचपन की याद हो आई। संश्लिष्ट मन था, यातायात का मन था, कहीं विक्षिप्त मन था, बदल ही गया । भूल ही गया कि हाथ में जो पात्र है वह निवृत्ति के लिए लाया था। नौका ध्यान में आ गई और उस पात्र को नाले के पानी में उतार दिया। हाथ से पानी हिलाने लगा, पात्र आगे बढ़ने लगा, मन की धारा बदली-देख-देख चंपा, नौका पार लग रही है । कल तक तो कागज की नाव का प्रश्न था, आज तो परमात्मा की असीम कृपा कि इस नौका के बहाने जीवन-नैया ही पार लग रही है। तब तक अन्य सभी संत वहाँ आकर एकत्रित हो गए। वे आपस में बातचीत करने लगे कि अरे भगवान ने भी क्या इस छोटे से लड़के को संन्यास दे दिया, इसे यह भी नहीं पता कि नाले में हाथ डालना चाहिए कि नहीं। सभी उसकी भर्त्सना करने लगे और भगवान के पास पहुँचे । प्रभु से शिकायत की कि आपने भी क्या एक बालक को संन्यास दे दिया। वह तो यह भी नहीं जानता कि एक साधु के क्या आचार-विचार हैं, उसे किस प्रकार जीवन जीना चाहिए। अब जब वह आपके पास आए तो सबसे पहले आप उससे प्रायश्चित करवाएँ तब संघ में सम्मिलित करें । भगवान खड़े हो गए और कहा, बालक वह नहीं, बालक तुम सब हो । प्रायश्चित उसे नहीं, तुम लोगों को करना है । क्योंकि तुमने एक केवली की आशातना की है । तुमने केवल ज्ञान और मुक्तिलाभ को उपलब्ध महाश्रमण की भर्त्सना की है । क्षमा-प्रार्थना कर प्रायश्चित करो। 'भगवन् आप यह क्या कह रहे हैं' - सभी साधु स्तब्ध रह गए । इसीलिए मैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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