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________________ मन को मिले सार्थक दिशा क्योंकि इनकी स्थिति और विक्षिप्ता गहन और भयभीत है । जिस दिन किसी विक्षिप्त की विक्षिप्तता सिर से बाहर निकल आएगी, सम्पूर्ण विश्व को नेस्तनाबूद कर देगी। क्योंकि मनुष्य जब तक शांत है तब तक ठीक-ठीक बात करेगा, लेकिन अशांत होते ही अपनी कही हुई बात भूल जाएगा। विक्षिप्तता मन की पहली दशा है । और दूसरी स्थिति है मन के यातायात की । वह मन जो दिन-रात चलता रहता है, हरदम ऊहापोह में लगा रहता है, जैसे शहर में चौराहों पर ट्रैफिक जाम रहता है, वैसे ही मन भी विचारों के ट्रैफिक से जाम रहता है। हमारे मन में विचार-विकल्प इस तरह गुंथे हुए हैं कि हम कहीं भी हों चाहे मंदिर में या दुकान में, घर में हों कि बाजार में, मन विचारों में भटकता ही रहता है । मनुष्य को समझ में नहीं आ रहा है कि वह मन पर कैसे नियंत्रण करे । हमारे मन में विचारों का ऐसा जंजाल है कि इससे कैसे मुक्त हों, यह समझ से परे है। चारों ओर चक्का जाम है। दिन-रात सोते-जागते कभी क्रोध-कषाय, कभी अहंकार, कभी मूर्छा, कभी वैमनस्य के विचारों के कारण हमारा मन नागपाश की भांति हो गया है। हमारे मन की स्थिति कीचड़ में फँसे हुए कीड़े की भाँति हो गई है कि कीड़ा जितने हाथ-पाँव मारकर बाहर निकलने की कोशिश करता है, उतना ही अधिक कीचड़ में घुसता जाता है । लगता है मन मनुष्य नहीं हुआ। डार्विन ने विकासवाद का सिद्धान्त दिया कि मनुष्य का विकास बंदरों से हुआ है, लेकिन जब-जब मन को देखा है, लगता है मनुष्य पैदा ही कहाँ हुआ है । मनुष्य का मन तो बंदर की भांति उछल-कूद करता ही रहता है । घड़ी के पेण्डुलम की तरह मन इधर-उधर डोलता ही रहता है । और जब तक मन डोलता रहता है, तब तक मनुष्य का मन यातायात मन है। मन के बाहर की ओर बहते प्रवाह का नाम ही मन का विस्तार है। मन के प्रवाह का स्वयं में संयमित हो जाना ही मन का नियंत्रण है । मन की एक और अवस्था देखता हूँ - वह है संश्लिष्ट मन की । एक ऐसे मन की जो पूरी तरह से उलझा हुआ है। एक ऐसा मन जो क्षण भर को तो स्थिर होता है, लेकिन उस स्थिरता में चंचलता समाई रहती है । किसी काम के लिए स्थिर होता है, लेकिन कार्य की समाप्ति से पहले ही वही गहमागहमी । अपनी ही बनाई दुनिया में मनुष्य उलझ गया है। वैसे तो मन स्थिर होता ही नहीं। अगर स्थिर हआ भी, तो अशुभ विषयों में, अशभ विचारों में, अशुभ निमित्तों में । रुचि का विषय हो, तो घंटों उसमें बिता सकते हो, लेकिन ध्यान ! उसमें तो कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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