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ध्यान : साधना और सिद्धि
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हम क्या बोलते हैं इससे भी गहरी बात है हम क्या सोचते हैं । हर सोच-विचार को हम बाहर प्रगट नहीं करते । हम वही बाहर लाते हैं जो हमारे हित में होता है । दूसरों की नजर में हम 'भले' ही बने रहना चाहते हैं, चाहे अंदर कितना भी वैर-विरोध - वैमनस्य पल रहा हो । बाहर तो मधुरता ही बनाए रखने का प्रयास करते हैं । लेकिन ध्यान का संबंध हमारे कोरे वाणी - व्यवहार से नहीं है । वाणी - व्यवहार में हम लोक- लज्जावश, किसी की शालीनता रखने के लिए किसी का विनय- विवेक रखने के लिए अपनी बात नाप-तौल कर पेश करेंगे । पर सोचने के लिए हम स्वतंत्र हैं । मन-ही-मन हम किसी के लिए कुछ भी सोच सकते हैं और यह सभी जानते हैं कि दूसरे के लिए सकारात्मक और अच्छे विचार कम ही आते हैं । बुरे विचार ही अधिक आते हैं । तब अच्छे विचार तो बाहर आ जाते हैं और बुरे विचार अंदर ही जमे रह जाते हैं । ध्यान, विशेषकर संबोधि-ध्यान आपको अन्तर - स्वच्छता देता है । बाहर की शालीनता और सोचने का बेहतर ढंग देता है।
वाणी-व्यवहार और सोच-विचार से भी एक और गहरा तल है, जहाँ न विचार होता है, न शब्द होता है । वहाँ शब्द की निष्पति के बीज होते हैं । वहाँ चिन्तन नहीं होता, सिर्फ दर्शन होता है । अगर तुम महावीर से भी पूछोगे तो वे भी यही कहेंगे कि यह सच है, क्योंकि ऐसा मैंने देखा है । महावीर के नाम पर जितने शास्त्रों की रचना हुई, उनका प्रारम्भ ही ऐसे होता है । 'सुयं मे आउसं—' सुना है मैंने आयुष्मन् । शिष्यों ने सुना, इसलिए उन्होंने अपने अन्तःकरण में देखा है । 'टेन कमान्डमेन्ट्स' के दस नियम भी देखे गए। इससे भी ताज्जुब की बात है कि जो कुरान की आयतों को पढ़ता है, वह जानता है कि मुहम्मद साहब कहते हैं कि मैंने कुरान की आयतों को देखा है । व्यक्ति के अन्तःकरण में एक ऐसी स्थिति रहती है जहाँ वह अपने विचार को देखता है, अपने शब्दों को और स्वयं को भी देखता है । क्रोध की तरंग, विकार की रेखा, प्रेम की किरण, सभी को देखता है । ज्ञानियों ने इस तीसरे स्तर को दर्शन की संज्ञा दी है। लेकिन मैंने इससे भी ऊपर की एक स्थिति देखी है जहाँ न बोलना होता है, न सुनना, न सोचना और न ही देखना होता है । यह वह परा स्थिति है जहाँ न दृष्टा है, न दृष्य है और न ही दृष्टि है । एक उन्मुक्त अवस्था शेष रहती है जिसे गीता जीवन-मुक्ति कहती है । जिसे हम कहते हैं – 'देह रहे, पर देह से रहते देहातीत, उन ज्ञानी के चरण में वंदन हों अगणीत'हम उस ज्ञानी के चरण में अपने प्रणमन्, अपने नमन समर्पित करते हैं जो उस परास्थिति
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को उपलब्ध है ।
ध्यान का विज्ञान व्यक्ति को एक तल से दूसरे तल पर, फिर तीसरे तल तक
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