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________________ एक डुबकी अपने भीतर | मन के शान्त होने की है। मन शान्त र त- सौम्य हो जाए, तो तुम सतत आत्मबोध में ही जीते हो । मन शान्त हो और चेतना ऊर्जस्वित, यही ध्यान का ध्येय है । मन का सरल-सौम्य होना ही ध्यान का परिणाम है । आगे के द्वार तो अपने आप खुलते हैं । तुम ऐसे स्वर के स्वामी होते हो, जिसे झेन ने एक हाथ की ताली का स्वर कहा है, अरविंद ने दिव्य सत्ता का प्रकाश कहा है । तुम आनन्दमयी मौन को उपलब्ध होते हो । एक ऐसी समाधि को जहाँ मन का समाधान हुआ । इसके लिए उतरें हम वाणी, विचार, अनुभवों और संवेदनाओं की तहों में । I इन्सान जब तक बोलता रहता है, उसकी पहचान बनी रहती है । यदि वह मौन हो जाए तो हम भूल ही जाते हैं कि वह कौन है । इन्सान - इन्सान सभी एक जैसे । जिस प्रकार पशु एक जैसे होते हैं, सभी पक्षी एक ही प्रकार के, कौए कौए हैं, कबूतर - कबूतर | ऐसे ही इन्सान भी एक जैसे । अगर कुछ बोले तो फर्क पता चले कि कौन कैसा है । मनुष्य की पहचान वाणी के द्वारा हो रही है कि तुम कुछ बोलो तो पता चले कि तुम्हारे विचार कैसे हैं। विचारों के आधार पर जान जाएँगे, पहचान पाएँगे कि तुम कौन हो । आज इन्सान की पहचान उसकी चेतना के द्वारा नहीं, बल्कि वाणी के द्वारा हो रही है । जबकि जीवन का विज्ञान यह बताता है कि वाणी का प्रयोग जीवन का बाह्य व्यवहार है । यह बहुत ही ऊपरी सतह का स्वर है । कोई व्यक्ति अच्छी से अच्छी चर्चा कर सकता है, सारी अच्छाइयों का पिटारा खोल सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह न होगा कि वह आचरण में भी उतना ही अच्छा और स्वस्थ है । इसलिए वाणी के कारण व्यक्ति पर बहुत अधिक भरोसा मत करना । १५ महावीर ने तो चौदह वर्षों तक मौन रखा । फिर उनके तीर्थंकरत्व की पहचान कैसे हुई होगी । लेकिन वे तीर्थंकर हुए। न बोले होंगें, अवश्य ही नहीं बोले होंगे, बोलने की उन्हें कोई जरूरत ही नहीं थी । उन्हें तो पहचान ही उस तत्त्व की करनी थी, जो स्वयं बोल रहा है । हम सभी पहले तल पर ही जी रहे हैं। बोलना, वाणी का व्यवहार प्रथम तल है । लेकिन हम केवल बोलते ही नहीं, बोलने के पहले एक घटना और घटती है, सोचने की, विचारने की । भले यह पता चले या न चले कि हम सोच रहे हैं या बोल रहे हैं, पर बोलने के पहले अवश्य ही हम सोचने की प्रक्रिया से गुजरते हैं। मुँह से शब्द उच्चारित होने के पूर्व यह कहीं और पहले ही आ जाता है । इसलिए वाणी तो बाह्य ऊपरी तल है । इसके भीतर तो सोचने का तल है । 1 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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