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________________ एक डुबकी अपने भीतर थे जिन्होंने उस अकेले आदमी को खोज निकाला था। व्यक्ति ने अखबार उठाया, पढ़ा और चौंक गया। तारीख देखकर तो और चौंक गया, यह तो नया अखबार था । उसे तो इस निर्जन स्थान पर वर्षों बीत गए थे। जलपान के बाद उन मुसाफिरों ने कहा, अब चलें ? 'मैं जाने से इन्कार करता हूँ' उस व्यक्ति ने कहा । आगन्तुक चौंके। उन्होंने कहा, अरे, यह तुम क्या कहते हो। खोजते-खोजते इतने वर्षों बाद तुम्हें पाया है और तुम इन्कार कर रहे हो' ! निर्जन स्थान पर रहने वाले उस मनुष्य ने जवाब दिया- 'मैं भी सोचता था, चलूँ तुम्हारे साथ, लेकिन तुम्हारे साथ यह जो अखबार है, इसे पढ़कर लगता है मैं यहीं ठीक हूँ । यहाँ मैं जिस सुख-शांति और आनन्द का मालिक हूँ, वह उस दुनिया में नहीं है जहाँ तुम मुझे ले जाना चाहते हो । यह अखबार पढ़कर लगता है वहाँ क्या कुछ हो चुका है । क्या तुम चाहते हो व्यभिचार से घिरी दुनिया के बीच जाऊँ ? क्या वैमनस्य से घिरे हुए समाज के बीच जाऊँ ? क्या मजहबों के बीच बंट गए धर्म में जाऊँ ? जहाँ भाई-भाई का खून अलग हो गया है, उस परिवार के बीच जाऊँ ? तुम मुझे कहाँ ले जाना चाहते हो ? मैं यहीं बेहतर हूँ । यहाँ केवल मैं हूँ और मेरा आनन्द है। उसने जाने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। उसे शांति का द्वीप मिल चुका था। आनन्द का धाम मिल गया था। स्वयं में शांत निर्जन टापू की खोज ही मुक्ति की साधना है। जब तक ध्यान की कला नहीं आती, भीतर का शांत निर्जन टापू नहीं मिलता। इस निर्जन टापू के अभाव में व्यक्ति अपने अन्तर्मन में व्यभिचार, वैमनस्य और गलाघोंट संघर्ष में जीने को मजबूर रहता है । जिन क्षणों में अपने ही अन्तःकरण के सागर में नौका डूब जाती है, नौका तो सभी की डूबती है, कोई-सा ही पार लगता है, किसी एक को शांत निर्जन टापू मिल पाता है । जिसे वह निर्जन टाप, शांति का द्वीप मिल जाता है, वही जीवन के उत्सव, जीवन की धन्यभागिता और कृतपुण्यता को उपलब्ध कर लेता है। ध्यान के मार्ग पर चलकर ही अन्तर्मन की शांति, मौन और आनन्द की प्राप्ति होती है । व्यक्ति का निर्जन, अन्तर-टापू में एकांत, मौन रहकर स्वयं में आत्मस्थ हो जाना ही स्वस्ति-मुक्ति का द्वार है, स्वर्ग का साम्राज्य है । बीती सदियों के महापुरुष, जिनके चरणों में हम नमन करते हैं, वे सभी ध्यान के द्वारा ही महापुरुषत्व को उपलब्ध हुए। फिर चाहे वे महावीर हों या बुद्ध, जीसस हों या सुकरात, मुहम्मद हों या नानक, सभी ने अपने अन्तर की निर्विचार शांति और सत्य को जिया । बुद्ध वर्षों तक जंगल में रहे । वहाँ उन्होंने क्या किया ? जब उन्हें बोधि प्राप्त हुई तब वे क्या कर रहे थे, उनमें क्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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