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________________ उड़िये पंख पसार लेकिन जाने से पहले अपने प्रश्न का उत्तर तो लेते जाओ ।' सम्राट ने कहा, 'अवश्य ।' तब संत ने पूछा, 'तो तुम्हें जवाब मिल गया ?''आप तो कुछ बोले ही नहीं फिर जवाब कैसे मिल गया ।' सम्राट ने पूछा संत ने कहा, 'संन्यस्त और गृहस्थ में इतना ही अंतर है कि मैं राजमहल में आया फिर भी राजमहल में नहीं था और तुम जंगल में आ गए हो फिर भी राजमहल में ही हो । संत जहाँ रहता है वहाँ रहकर भी वहाँ का नहीं होता और गृहस्थ जहाँ रहता है वहीं का हो जाता है । संत का मन स्थिर होता है और पाँव चलते हैं । गृहस्थ के पाँव रुँधे हुए रहते हैं, पर मन चलायमान रहता है ।' जहाँ अलिप्त दशा आती है, वहीं मनुष्य के अंतःकरण में संन्यास घटित होता है। मनुष्य का मन मनुष्य के नियंत्रण में आ जाए, यही साधक की पहचान है । तब वह समष्टि का होकर, जीता है । मुक्ति होनी ही चाहिए सभी की । आप सभी मुक्त होकर जिएँ, वह मुक्ति जो परम, श्रेष्ठ और शाश्वत है । स्वार्थ और संकीर्ण दृष्टि की चारदीवारी से बाहर आएँ । सागर बहुत विशाल है। पंख फैलाओ, आकाश की ओर उड़ान भरो, तो पता चलेगा कि क्षितिज के पार क्या है— अनन्त का आकाश, अन्तहीन आकाश । आज, बस, इतना ही । नमस्कार । Jain Education International ११ For Personal & Private Use Only ☐ www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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