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________________ ध्यान ः साधना और सिद्धि बैठ जाते हैं और कभी मस्जिद पर भी । जो मस्जिद पर बैठा है, वही कभी गिरजाघर में होने वाली प्रार्थना भी सन आता है, तो कभी गुरुद्वारे में भी उड़ आता है। एक हम हैं जो भगवान की आराधना के लिए बनाई जाने वाली इमारतों और मीनारों को मन्दिर-मस्जिद-गिरजा का नाम देकर एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं, वैमनस्य कर बैठते हैं, दंगे-फसाद हो जाते हैं। क्या हम इस ओर गौर फरमाएँगे? मैं चाहता हूँ एक बार हम अपने आपका, अपने आदर्शों का, अपने यथार्थों का, अपने मूल्यों का मूल्यांकन करें । हम अपने आपको पहचानें, अपने आपको तौलें। ध्यान-शिविर का उद्देश्य स्वयं का स्वयं से परिचय है । स्वयं यानि जो हम हैं । भीतर से जो हम हैं । जरूरी नहीं है कि मनुष्य भीतर भी मनुष्य हो । बाहर तुम मनुष्य हो, भीतर तुम्हारे सर्प का क्रोध फुफकार रहा हो । लोभ का दलदल हो । मूर्छा का अंधेरा हो । हिंसा के कारतूस हों । वैर-विरोध के सांड हों । मुर्खता के गधे हों । यह भी संभव है कि आपका अन्तर्मन सुखशांति के गुलाब से सुवासित हो । प्रेम का प्रभात खिला हो । सहानुभूति का सागर लहरा रहा हो । समता का संगीत फूट रहा हो । नेकी की नेमत से शृंगारित हो। कहा नहीं जा सकता कि कौन किस स्थिति में है । मनुष्य कब प्रेत का स्वरूप अख्तियार कर ले और कब देव का। अब यह मनुष्य का मन है । इसका अगला पल कैसा होगा, यह कोई हमारी हस्तरेखा में लिखा थोड़े ही होता है । हम मन से रूबरू हों। ध्यान मन को पहचानने का मार्ग है, मन से अतिक्रमण कर लेने का मार्ग है, मन से मुक्त हो जाने का गुर है। जब हम स्वयं को जान लेते हैं, एक को जान लेते हैं मानो हम सभी को जान लेते हैं । स्वयं का प्रतिबिम्ब सबमें दिखाई देने लगता है । तब हम खुद के पुत्र और दूसरे के पुत्र में फर्क नहीं कर सकते । हमारा स्नेह, हमारी करुणा, हमारे ममत्व के सभी भागीदार हो जाते हैं। यह शिविर हमें ऐसी श्रद्धा देता है कि हम मंदिर और घर में भेद न कर सकें । हम घर को स्वर्ग का वह रूप दें कि घर खुद ईश्वर के प्रणिधान का मंदिर हो जाए। यह शिविर एक ऐसी श्रद्धा देता है कि बाल कृष्ण और अपने बालक में भिन्नता न रह जाए । बालकृष्ण के मंदिर में अगर माखन-मिश्री चढ़ाते हो, उस समय यदि अपना पुत्र आकर माखन-मिश्री की मांग करे तो उसमें बालकृष्ण का स्वरूप दिखाई दे जाए और मंदिर में दिया जाने वाला अर्घ्य पुत्र की उदर-पूर्ति कर दे । मेरी प्रेरणाएँ केवल ईट-पत्थर के मंदिर में जाने के लिए नहीं है, अपितु आप जहाँ हैं वहीं मंदिर का नियमन हो जाए । वह दृष्टि प्राप्त हो जाए कि अपने ही बच्चे में कृष्ण का रूप देख सकें। कृष्ण तो सदा ही आपके आसपास है, बस आपको वह आँख मिल जाए कि कृष्ण नजर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003863
Book TitleDhyan Sadhna aur Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2003
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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