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ध्यान ः साधना और सिद्धि
नहीं हैं। राधा ने कृष्ण की ओर देखा, कृष्ण मुस्कुराए । राधा ने कहा, मेरा आना कभी व्यर्थ नहीं जाता, माँगो वत्स ! तुम मुझसे जो भी माँगोगे जरूर मिलेगा।
सूर ने कहा, माँ तुम देना ही चाहती हो, तो आज इस अंधे को आँखें दे दो। ताकि मैं तुम्हें जी भरकर निहार सकूँ । राधा ने 'तथास्तु' कहा और सूर को आँखें मिल गईं। सूर ने अपने राधा-कृष्ण को अपूर्व आनन्द भाव के साथ भरपूर निहारा, उसकी आँखें हर्ष से भर आईं। उन अश्रुकणों से उसने राधा-कृष्ण के चरणों का प्रक्षालन किया। अपने बालों से उनको पोंछा । कृष्ण ने कहा, भक्त मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत अभिभूत हूँ वत्स ! तुम कुछ माँगो, मैं तुम्हारी हर कामना पूर्ण करूँगा। सूर ने कहा, भगवन् ! आप मुझे वरदान देना चाहते हैं तो बस इतना कीजिए कि मां राधा ने जो आँखों की रोशनी दी है, वह वापस ले लीजिए । कृष्ण ने आश्चर्य से पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो । सूर ने कहा, भगवन् ! मैं नहीं चाहता कि जिन आँखों से परमात्मा के रूप का रसास्वादन किया है, वे आँखें किसी और को देखें, इसलिए प्रभु ! ये आँखें पुनः तुम्हें समर्पित हैं। कृष्ण ने 'तथास्तु' के साथ कहा, सूर तुमने अपनी आँखें लौटाकर सदा-सदा के लिए अपनी आँखों में रहने के लिए मुझे विवश कर दिया है। अब कृष्ण का निवास बैकुंठ नहीं, सूर का अंतर्हृदय हो गया और तब एक भक्त ने भगवान को जीता और भगवान भक्त के हृदय के नेत्रों में बस गए।
अंतरहृदय की जागृति चाहिए, उसी का प्रेम चाहिए, उसी की करुणा चाहिए। मनुष्य अपने मन को जीत लेगा अगर हृदय का हो जाए। मैं साधना को जीवन का आधार समझता हूँ, लेकिन उसकी पगडंडिया हृदय के रास्ते से गुजरती हैं । हृदय में ही मन की शांति का बीज है। बिना हृदय का इन्सान तो 'इ' कार रहित शिव (शव) है । शव ही शिव भी है । शव में ईश्वरत्व जुड़ जाए तो शिव और शिव में से ईश्वरत्व निकल जाए तो शव रह जाता है। यह शिव मनुष्य के अंतर-हृदय में स्थित है। इसलिए ध्यान भी हृदय में धरो, जीवन भी हृदय से जियो । ऐसे जियो कि जीवन आनन्द का वरदान हो जाए कि जीवन परमात्मा का पुरस्कार हो जाए, कि जीवन प्रकृति का उपहार या सौगात हो जाए। जीवन में हृदय का प्रेम और शांति चाहिए, हृदय की करुणा और हृदय का आनंद चाहिए।
इस हृदय के भीतर ही सारे तीर्थ और धाम स्थित हैं । जब कोई अन्तर हृदय की यात्रा कर लेता है, तब बाहर तीर्थ बचते ही कहाँ हैं । मनुष्य का यात्री मन परमात्मा को भी बाहर ढूंढता है और ध्यानी मन परमात्मा को अपने भीतर जानता है । जब ध्यानी
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