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जीवन जिएँ अन्तर्हदय से
अभी तो तुम्हें लगता है कि भगवान है कहाँ । कभी संतों से सुन लिया था या पुस्तकों में पढ़ लिया था सो कहीं होगा किसी किनारे । भगवान है, ऐसा आत्म-विश्वास नहीं है । इसीलिए लतों से घिरे रहते हो। तुम मंदिर में जाकर धन तो चढ़ा सकते हो, पर क्या सिगरेट और शराब चढ़ा सकते हो? नहीं, क्योंकि वहाँ तुम्हें मूर्ति के रूप में ही सही परमात्मा दिखाई देता है । इसलिए तुम यह अनुचित कार्य नहीं कर पाते । फिर यह काया क्या परमात्मा का घर नहीं है? यह शरीर, यह हृदय भगवान का निवास स्थान नहीं है ? फिर क्यों स्वयं को अपवित्र करते हो । क्यों अशुद्ध करते हो, क्यों भीतर कचरा डालते हो । एक भाव हृदय में प्रतिष्ठित हो जाए, भीतर मेरा भगवान रहता है । उसके बाद जो स्वीकार किया जाएगा, वह तुम्हारी पुष्पांजलि ही होगी।
मुझे याद है, यह मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है, ऐसी मोहक कहानियाँ धरती पर कभी-कभी ही घटित होती हैं । इतनी जीवंत कहानी सबके जीवन में घटित हो। कहा जाता है कि सूरदास अपने प्रभु की भक्ति में मगन इकतारे से सुर मिला रहे थे कि 'प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो।'
प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। मैला नाला जनम-जनम का, मैं तो कीच भरा, तुम निर्मल गंगा जल मुझको, छूकर पाप हरो। भवसागर में फंसी नाव का, मैं भटका पंछी,
इस पंछी को चरण-शरण दो, अब ना देर करो ॥ सूर कुछ गुनगुना रहे थे अपनी ही मस्ती में डूबे हुए कि उधर से उनके आराध्य कृष्ण और राधा का निकलना हुआ। राधा ने कृष्ण से कहा, प्रभु देखो, वह भक्त पुकार रहा है । चलो, आज उसी की देखभाल कर ली जाए। राधा-कृष्ण सूर के पास पहुँच जाते हैं । राधा कहती हैं जिस परमतत्त्व की तुम उपासना कर रहे हो, जिसे तुम पुकार रहे हो, वह तुम्हारे सामने साक्षात् है । तुम अपनी आँखें खोलो और उस परम का दर्शन कर लो । सूरदास चौंके । उनकी आँखों से अश्रु की बूंदें छलक आईं । राधा ने फिर कहा, जिसे तुम पुकार रहे थे वह तुम्हारे सामने हैं और तुम रो रहे हो, अपनी आँखें खोलो वत्स ! सूर ने कहा, माँ आज तुमने जीवन में पहली बार मुझे अपने अंधत्व का अहसास करवाया । मैंने इतना जीवन व्यतीत कर लिया पर कभी अंधत्व खला नहीं । आज पहली बार मैं विवश हूँ कि भगवान मेरे सामने खड़े हैं और मेरे पास उनका दीदार देखने के लिए आँखें नहीं हैं । अब राधा भी चौंकी। पूछा, क्या कहते हो सूर, तुम्हारे पास आँखें
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