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________________ दान का अर्थ है देना। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान देने की प्रवृत्ति होनी चाहिए । दानवीर कर्ण के जीवन से प्रेरणा ली जानी चाहिए। सूर्य - पुत्र होने के बावजूद उसे सूत-पुत्र के रूप में जीना पड़ा। उनका परिचय इसी तरह दिया जाता था, लेकिन उनकी दानवीरता के कारण ही लोग उन्हें सदियों बाद भी याद करते हैं, आने वाली पीढ़ियाँ भी उन्हें याद करती रहेंगी। मैं कर्ण की दानवीरता से निजी तौर पर प्रभावित हूँ। मैंने कर्ण से ही जीवन की यह सीख पाई है कि यदि उनके द्वार पर आया हुआ कोई याचक जीवन भी माँग रहा है, तो वह उन्हें निराश नहीं लौटाते । मैं भी अपने यहाँ से किसी को निराश या खाली हाथ लौटाना पसंद नहीं करता । मैं तो आपसे भी कहूँगा कि फूल - पांखुरी ही सही, कुछ-न-कुछ हमेशा आने वालों की झोली में देते रहिए। केवल नाम के या मुफ़्त के सेठ मत कहलाइए । हकीकत में सेठाई रखिए, दिलदारी रखिए। आप इस हाथ देंगे, वह उस हाथ लौटाएगा। कहते हैं, तुम एक पैसा दोगे, वह दस लाख देगा । ठीक है, अपने को वापस पाने की तमन्ना नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए; फिर भी हमें किसी-नकिसी रूप में तो दाता होना ही चाहिए। कर्ण जीवन दे सकता है, तो हम दो-चार पंखुरियाँ तो दे ही सकते हैं । I कहते हैं, इन्द्र को अपने पुत्र को बचाने के लिए कर्ण की शरण में जाना पड़ा। सूर्य - पुत्र कर्ण को उसके पिता ने जन्म के साथ ही उसकी रक्षा के लिए एक ऐसा कवच दिया, जो किसी भी तरह के युद्ध में उसकी रक्षा करने में सक्षम था। सूर्य भगवान ने कर्ण जन्म से ही कानों में कुण्डल और छाती पर कवच प्रदान किया था। यह कवच और कुण्डल उनके शरीर का ही हिस्सा थे । इन्द्र को लगा कि महाभारत के युद्ध में कर्ण को कोई पराजित नहीं कर सकेगा क्योंकि कुण्डल और कवच उसकी रक्षा करते हैं। सभी जानते थे कि कर्ण हर रोज सुबह पूजा करने के बाद उनके यहाँ आए प्रथम व्यक्ति को मुँह-माँगा दान दिया करते थे । यह उनकी प्रतिज्ञा थी और उसे वे किसी भी स्थिति में नहीं तोड़ते थे। इसलिए इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप बनाया और अलसुबह कर्ण से माँगने चले गए। कर्ण को बीती रात में सूर्यदेव ने सचेत कर दिया था कि कल सुबह जो पहला व्यक्ति तुमसे कुछ माँगने आए, उससे सचेत रहना, वह तुमसे तुम्हारे रक्षा कवच को माँगने वाला है । कर्ण उन्हें आश्वस्त करते हैं कि पिताश्री ! आप चिंतित न हों, मैं सावधान रहूँगा; लेकिन अगर कोई माँगने आएगा तो दान देने का अपना प्रण नहीं तोड़ सकता । इन्द्र ब्राह्मण के रूप में कर्ण के यहाँ पहुँचे थे। रूप तो ब्राह्मण का था, लेकिन कर्ण उन्हें पहचान गए। कर्ण ने बिना कोई संकोच किए इन्द्र को अपनी सबसे अनमोल चीज़ दे डाली। कर्ण के लिए किसी को अपने द्वार से निराश लौटाना संभव नहीं था । दुनिया में हर कोई देवताओं से माँगने के लिए मचला करता है, पर यहाँ तो पासा कुछ उलटा ही है; यहाँ तो देने वाला देवता स्वयं इंसान से माँगने के लिए उसके द्वार पर याचक बना 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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