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कारण नहीं होता। गुस्सा व्यक्ति के स्वयं के ही भीतर होता है। इसी गुस्से को तो जीतना है। गुस्से को तब ही जीत पाएँगे, जब जीवन में त्याग को महत्त्व देंगे, लालसाओं को कम करेंगे। कहा भी गया है - 'तेन त्यक्तेन भुंजिताः।' वस्तुओं का उपयोग त्याग-भाव से करो, अनासक्त-भाव से करो। किसी भी चीज़ को काम में लो, जीवन के लिए यह जरूरी है, लेकिन उसके प्रति आसक्ति का भाव मत रखो। आसक्ति ही वासना है। वासना के हज़ार रूप हैं। ऐषणाएँ मनुष्य को जीने नहीं देतीं। एक पूरी होती है, तो दूसरी सिर उठा लेती है। वासना केवल भोग से ही नहीं जुड़ी है, वासना का मतलब है : आसक्तिपूर्ण व्यापार । वासना शरीर के ही प्रति नहीं होती। वासना खाने की, पहनने की, अच्छा दिखने की, कुछ भी हो सकती है। नशे की वासना सबसे बुरी है। हेरोइन या चरस की लत लग जाए, तो आदमी यह नशा न मिलने पर तड़पने लगता है। नशा पाने के लिए पत्नी के गहने तक बेचने को तैयार हो जाता है, घर बेच देता है। फिर सड़क पर आ जाता है और तिल-तिल कर मरता है।
अगर हमारा मन हमारे नियंत्रण में नहीं रहता, तो हमें अपने नियंत्रण में ले लेता है। प्रश्न है - यह मन किससे नियंत्रित होता है? यमराज कहते हैं, इस मन को विवेकयुक्त बुद्धिवाला, संयमित चित्त वाला ही नियंत्रित कर सकता है। ये दो गुण मन को सही रास्ते पर ला सकते हैं। व्यक्ति के जीवन की तमाम उठापटक को देखने, समझने से यही निष्कर्ष निकलता है कि विवेक ही हमारा गुरु है। विवेक हमारी अंतर्दृष्टि है। विवेक हमें प्रकाश देता है, हमारा सद्गुरु है। यह ऐसा गुरु है, जो हमें ज्ञान की दृष्टि से परिपक्व बनाता है। विवेक और संयम, मन और वाणी पर संयम -ये दो बिन्दु हमारे लिए हमारी दो आँखों की तरह काम करते हैं। हम इनसे अपने मन को संस्कारित कर सकते हैं। मन में जैसे ही गलत भाव उठे, बुद्धि रूपी सारथी तत्काल अंकुश लगा दे, 'नहीं, मुझे यह काम नहीं करना; यह गलत है।'
मन के कई रोग हैं। इन रोगों का समय रहते इलाज हो जाना चाहिए। चिंता, भावुकता में खुद को न फँसने दें। वासना और भावुकता ऐसे रोग हैं, जो व्यक्ति को आसानी से अपने चंगुल में ले लेते हैं। इनसे बचने के लिए ही मन को मज़बूत करने की आवश्यकता है। भावुक होना अच्छी बात है, लेकिन भावुकता में पिघल नहीं जाना है, विवेक रखना है। इसी तरह क्रोध भी रोग है। क्रोध करते समय सोचें, क्यों क्रोध कर रहा हूँ, इससे मुझे क्या लाभ होने वाला है? क्रोध का
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