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________________ का निरोध करते हए अपने भीतर उतरने लगोगे। भीतर ही आत्म-ज्योति का अनुभव होगा। कभी भीतर कोई तरंग उठेगी तो हो सकता है, ध्यान से विचलित हो जाओ, लेकिन घबराना मत, भीतर उतरने की यही शुरुआत है। मन-वचन-काया यहीं रह जाते हैं जब मृत्यु आती है। बार-बार मृत्यु का उल्लेख करने का अर्थ यह है कि इससे हम जीव और शरीर को अलग-अलग देखने में सक्षम हो पाएँगे। मृत्यु जीव को शरीर से अलग करती है। हम भी शरीर और जीव को अलग-अलग देखने का प्रयास कर रहे हैं। आत्म-ज्ञान प्राप्ति का यही तरीका है। आत्म-ज्ञानियों के ज्ञान देने के तरीके भी अलग-अलग होते हैं। किसी शिष्य को गुरु ने लात मारी, तो उसमें भी कुछ रहस्य छिपा था; लेकिन शिष्य उस भाव को समझा ही नहीं। वह तो उनसे भी बड़े गुरु के पास जाकर शिकायत करने लगा। गुरु का लात मारना भी शिष्य के लिए शक्तिपात की वजह बन जाया करता है, जागरण का कारण बन जाया करता है। रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचकर नरेन्द्र ने पूछा, 'मैं भगवान को जानना चाहता हूँ।' परमहंस ने उसे एक लात दे मारी। नरेन्द्र को तीन दिन बाद होश आया। उसने अपने आपको प्रकाश से भरा पाया। गुरु की लात सहन करने वाले भी विरले ही हआ करते हैं। गुरु भी हर एक को लात नहीं मारा करते। केवल मंदिरों में आरती करते रहने से आत्मा से साक्षात्कार नहीं हुआ करता । यह तो झेन गुरु का डंडा है, जो सोए को जगाने के काम आता है । जन्मों से मूर्छा में पड़ी चेतना को जगाना आसान नहीं है। केवल साधना में बैठने से ही सिद्धत्व उपलब्ध नहीं होता, और जिसे होना होता है, उसे सांसारिक जीवन में भी उपलब्ध हो जाया करता है। सिद्धत्व कोई और ही चीज होती है। एक आदमी गुरु के पास पहुँचा और सवाल करने लगा। गुरु एक सवाल का जवाब देते, तो वह दूसरा सवाल पूछने लगता। प्रश्न-दर-प्रश्न पूछने के कारण गुरु कुछ ही देर में झुंझला उठे। आखिर गुरु ने शिष्य को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। रात को गुरु को स्वप्न आया। स्वप्न में भगवान ने उन्हें कहा, 'आज तुमने बहुत बड़ी गड़बड़ कर दी। एक जिज्ञासु तुम्हारे पास आया था, लेकिन तुमने उसकी कद्र नहीं की। तुम सिद्ध नहीं हुए। कोई भी सिद्ध अपने द्वार पर आए किसी जिज्ञासु को निराश नहीं लौटाता। जो अपने द्वार पर आने वाले का हृदय बदल डाले, वही सिद्ध होता है।' आत्म-योग रेवडी की तरह बाजार से खरीदी जाने वाली चीज़ नहीं है। मनुष्य को अपने आपको महत्त्व देना होगा, तभी हम आत्म-तत्त्व से रू-ब-रू हो पाएँगे। हमें इसके लिए अंतर्दष्टि उपलब्ध करनी होगी। शरीर में रहने वाले इस आत्म-तत्त्व को हम पलभर में जान सकते हैं । श्मशान में जब कभी कोई शव जलता देखें, तो मन में अहसास करें कि हमारे साथ भी एक दिन ऐसा होने वाला है। हम आत्मा हैं । यह जो जल रहा है, यह शरीर है। शरीर को इसीलिए जलाया जा रहा है क्योंकि इसके भीतर रहने वाला चेतन 196 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003862
Book TitleMrutyu Se Mulakat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2011
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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