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नित्य ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो जन्मता है और न मरता ही है। यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है और न इससे कोई हुआ है । यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत एवं पुरातन है तथा शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता। यह अणु से भी अणुतर और महान् से भी महत्तर आत्मा जीव के हृदय रूपी गुहा में स्थित है। निष्काम पुरुष अपनी इन्द्रियों के प्रसाद से आत्मा की उस महिमा को देखता है और शोकरहित हो जाता है।
यमराज उस आत्म-तत्त्व का निरूपण कर रहे हैं कि आत्मा अजन्मा है, शाश्वत है। न तो किसी ने इसे पैदा किया है और न ही इसने किसी को पैदा किया है। हमने अब तक यमराज और नचिकेता के बीच हुए संवाद के माध्यम से वे रास्ते तो नापे हैं जो लोगों को दुनिया की मंज़िलों तक पहुँचाया करते हैं, पर कठोपनिषद् के माध्यम से हम जिन रास्तों को तय करने की कोशिश कर रहे हैं, वे हमें अपने-आप तक पहुँचाते हैं। हमें अपना स्वयं का सामीप्य देते हैं। क्या है यह आत्मा? क्या है इसका स्वरूप? क्या हम केवल किताबों के ज्ञान के आधार पर इसे समझ सकते हैं, या कोई और भी इसका तरीका हो सकता है?
इसके लिए बात की शुरुआत एक प्यारे से प्रसंग से करूँगा। गुजरात के एक महान संत हुए हैं श्रीमद् राजचन्द्र। ये ऐसे दिव्य पुरुष हुए जिन्हें अनेक लोगों ने अपना गुरु बनाया। मेरे लिए भी वे गुरु की तरह आदरणीय हैं । मैंने उनके अध्यात्म से कुछ सीखा है। अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों में मैंने इस सत् पुरुष के ज्योति-पुरुष के रूप में दर्शन किए हैं। चाहे कोई इन्हें माने या न माने, पर मैं मानता हूँ। मैं राजचन्द्र जी की इज़्ज़त करता हूँ। हालाँकि उन्होंने गृहस्थी भी बसाई थी। उनके चार-पाँच संतानें भी थीं। इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि कोई व्यक्ति गृहस्थ है या संत।कई संत भी ऐसे होते हैं जो फाकामस्ती करते हैं, जबकि कई गृहस्थ भी ऐसे होते हैं, जो आत्म सिद्धियों के मालिक होते हैं । मैं व्यक्ति का मूल्यांकन वेश के आधार पर नहीं, गुणस्थानों के आधार पर करता हूँ। मैंने अनेक गृहस्थ-संत देखे हैं। तुम संत बनकर संत हुए तो कोई बड़ी बात नहीं, पर संसार में रहकर भी संत हो गए, यह मार्के की बात हुई। मैं राम के त्याग से ज़्यादा महत्त्व भरत के त्याग को देता हूँ । वनवासी बनकर घास पर सोना आम बात है। घास पर नहीं सोएगा, तो क्या उसके लिए महलों के राज गद्दे जाएंगे? भरत का त्याग तो देखो कि राजमहलों में हैं, मगर फिर भी राम जैसा वनवासी जीवन जी रहे हैं । जंगल में रहकर ब्रह्मचारी होना अलग बात है, पर स्त्री के साथ रहकर भी ब्रह्मचर्य को जीना एक महान् तपस्या है।
श्रीमद् राजचन्द्र गृहस्थ संत हुए। तुकाराम की तरह । कबीर और सुकरात की तरह । श्रीमद् राजचन्द्र के बचपन की घटना है। उनके परिवार में किसी बुजुर्ग की मृत्यु हो गई। परिवार में लोगों को रोते देखकर बालक राजचन्द्र ने पूछा, सब लोग रो क्यों रहे
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