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चौकीदारी भी हमें हीनभाव से ग्रस्त नहीं होने देगी। मन की शांति ही अगर खंडित हो गई तो हम उच्च सत्ता और ऊँची कुर्सी पर बैठकर भी न तो अपने आप से संतुष्ट हो पाएँगे और न ही तृप्त।
जैसे क्षितिज का अन्त नहीं होता, ऐसे ही तृप्ति का अन्त नहीं होता। जैसे आकाश का अन्त नहीं होता ऐसे ही प्राप्ति का कोई अन्त नहीं होता, पर जहाँ चित्त में शांति की धारा फूट पड़ी वहाँ जिस डगर पर हमारा क़दम खड़ा होगा, हम वहाँ भी तृप्त रहेंगे। जिस ओर हमारी नज़र पड़ जाएगी, उस ओर हमें संतुष्टि रहेगी। हम जिस भी वातावरण में रहेंगे, हर वातारण में हमारे साथ स्वर्ग का नन्दनवन होगा।
जो व्यक्ति शांत मन का स्वामी है उसे अगर नरक की आग में झोंक दिया जाए तब भी स्वर्ग उसके साथ होता है। अशांत मन के व्यक्ति को अगर स्वर्ग के दरवाज़े तक पहुँचा दिया जाए, तब भी वह वहाँ नरक का निर्माण कर लेता है । स्वर्ग और नरक दोनों ही हमारे साथ छाया की तरह चलते हैं। आगे स्वर्ग है तो पीछे नरक है । मन शांत है तो आगे स्वर्ग है । मन अशांत है तो आगे नरक है, स्वर्ग कहीं और छिपा पड़ा है।
जीवन में अगर कोई व्यक्ति किसी भी पहलू को हर हाल में महत्त्व देना चाहे तो मैं कहूँगा कि शांति को सबसे ज़्यादा मूल्य देना। निश्चित ही पैसा मूल्यवान है, लेकिन शांति पैसे से भी ज़्यादा मूल्यवान है। निश्चय ही पत्नी की क़ीमत है, पर शांति पत्नी से भी ज़्यादा क़ीमती है। संतान का मोल अनमोल होता है, लेकिन शांति का मोल संतान से भी ज़्यादा मूल्यवान होता है।
जीवन में वह हर डगर स्वीकार्य है, वह हर व्यक्ति स्वीकार्य है, वह हर निमित्त स्वीकार्य है जिसके पास बैठने से, रहने से या जीने से हमारी शांति को कोई ख़तरा न होता हो। जिसके कारण हमारे मन की शांति बाधित होती है, खंडित होती है, हमारा मन बार-बार क्रोधित, उत्तेजित और आवेशित हो जाता है, वह हर निमित्त, हर वस्तु, हर व्यक्ति त्याज्य है, त्याज्य है, त्याज्य है.....!
लोग कहते हैं रिश्ते तो स्वर्ग में बन जाया करते हैं। ज़रा मुझे कोई यह बताए कि जिस पति-पत्नी के बीच आए दिन झगड़े चलते रहते हैं उनके रिश्ते स्वर्ग पर बने या धरती पर? मुझे तो लगता है कि ऐसे लोगों के रिश्ते स्वर्ग में नहीं, किसी नरक में बनकर आते होंगे। बिचारे नरक को पूरा न भोग पाए होंगे, तो यहाँ आकर उसकी खानापूर्ति कर रहे हैं। ऐसे लोग आते भी नरक से हैं और यहाँ भी नरक को ही जीते हैं। माफ़ करें मुझे यह कहने के लिए कि ऐसे झगड़ालु पति-पत्नी मरकर जाते भी नरक ही हैं।
___ अरे भाई, तू-तू, मैं-मैं करके क्यों अपने जीवन को नरक बना रहे हो। हो सकता है आप में से कोई यहाँ स्वर्ग से आया हो या कोई नरक से। अपन जहाँ से आए हैं उसको तो अब बदला नहीं जा सकता। पर जहाँ आए हैं उसे तो बदला जा सकता है। लक़ीर के फ़क़ीर मत बनो। हवाएँ बदलती हैं, मौसम बदलता है, रिश्ते बदलते हैं फिर हम ही झगड़ों के पुराने कलेण्डरों को ढोते क्यों फिरें ? अब पुराने ज़मानों की तरह आपके कोई दस-बीस पत्नियाँ तो हैं नहीं । कुल मिलाकर एक-दो पत्नियाँ होंगी और एक-दो ही पति होंगे।
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