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________________ मैंने गुस्से के दुष्परिणाम और प्रेम के शुभ परिणाम देखे हैं। इसीलिए कहता हूँ गुस्सा मत करो, प्राणीमात्र से प्रेम करो। सभी से प्रेम करना जीवन जीने की बेहतरीन कला है। प्रेम स्वयं अहिंसा है और अहिंसा का मतलब है अनंत प्रेम । ऐसा मत सोचो कि थोड़ा-सा गुस्सा कर लिया तो क्या हो गया। दुनिया में कुछ चीजें होती तो थोड़ी-सी हैं, पर कब बढ़ जाती हैं पता नहीं चलता। कभी किसी से कर्ज़ नहीं लेना। यह कभी भी बढ़ सकता है। घाव कभी होने मत देना, वरना घाव कभी भी बढ़ सकता है। आग लगने मत देना, क्योंकि यह कभी भी तेज हो सकती है और क्रोध कभी न करना अन्यथा यह भी आगे बढ़ सकता है। हो सकता है कभी आपको क्रोध करना ही पड़ जाए तब भी अल्प मात्रा में ही क्रोध करें। क्रोध तभी करें जब आपके पास अन्य कोई विकल्प न बचे. क्योंकि क्रोध तो ब्रह्मास्त्र है, इसे तभी उपयोग में लाएँ जब आपके सभी अस्त्र विफल हो जाएँ। क्रोध के परमाणु-अस्त्र का तभी इस्तेमाल करें जब अपने समस्त सकारात्मक अस्त्र निष्फल हो जाएँ। क्रोध तीन प्रकार का होता है - एक, पानी में उठे बुलबुले की तरह कि अभी गुस्सा आया और काफूर हो गया। जैसे पानी में लकीर खींचें तो कितनी देर टिकती है, बस कुछ लोगों का गुस्सा ऐसा ही होता है। दूसरे प्रकार के लोगों का गुस्सा मिट्टी में पड़ी दरारों की तरह होता है कि जब तक प्रेम या मिठास का पानी न मिले दरार रहती है फिर सब एक समान। उनका गुस्सा प्रेम की बरसात होते ही, मीठे बोलों की शीतलता से ठंडा हो जाता है। और तीसरे प्रकार के लोगों का गुस्सा पत्थर में पड़ी दरार की तरह होता है। चाहे जितना प्रयत्न कर लो पत्थर जल्दी जुड़ते नहीं, ठीक इसी प्रकार इन लोगों का गुस्सा कम नहीं हो पाता। और कुछ लोग कमठ की तरह होते हैं, जो जन्मों-जन्मों तक क्रोध की धारा को साथ लिए रहते हैं। हम लोग एक शहर में थे। पता चला कि एक भाई के पन्द्रह उपवास हैं, शोभायात्रा निकाली गई। - भोजन का कार्यक्रम भी था। वे लोग हमें भी आमंत्रित कर गए। हम शोभायात्रा में चल रहे थे कि एक घर के पास से निकले तभी किसी ने कहा, 'महाराज जी, यह उस व्यक्ति के बड़े भाई का घर है जिसकी शोभायात्रा में आप चल रहे हैं।'' पर आप यह बात मुझे क्यों बता रहे हैं?' मैंने पूछा। क्योंकि वह इस शोभायात्रा में नहीं आया है।' मैंने कहा, 'मतलब?''ये दोनों सगे भाई हैं पर आपस में बोलते नहीं हैं', मुझे बताया गया। ओह ! पन्द्रह उपवास और मन में ऐसे वैर-विरोध की भावना, तब यह तपस्या सार्थक कैसे होगी। ___ मैंने तपस्वी को बुलाया और कहा, 'आपने अपने भाई को न्यौता तो दिया होगा?' वह इधर-उधर की बातों में बहलाने लगा कि बेटे ने दिया होगा, आदि-आदि। मैंने कहा, 'चलों, हम लोग ही ऊपर चलते हैं।' उससे मना करते न बना, पाँच-सात लोगों को लेकर हम ऊपर गये। मैंने कहा, 'पधारिये साहब, शोभायात्रा में।' वह ना-नुकुर करने लगे। कहने लगे कि उसका भाई के साथ कोई संवाद नहीं है। मैंने कहा, 'भाई भाईसे नहीं बोलेगा तो किससे बोलेगा।' उन्होंने कहा, 'हमारे आपस में कोई संबंध नहीं है। इसके बेटे की शादी हुई तो हम नहीं गए, हमारे बेटे की शादी हुई तो ये नहीं आए। पन्द्रह-सोलह साल हो गए हैं। हमारी आपसी TEE 24. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003860
Book TitleLife ho to Aisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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