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के लिए विवश करना... । अब आप ही मुझे बताइए कि अगर घरों के भीतर ये हाल हैं तो फिर काहे का धर्म और काहे के दान-पुण्य । मैंने जब यह घटना पढ़ी और सुनी तो मुझे बड़ी पीड़ा हुई। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की - सबको सन्मति दे भगवान ।
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धर्म केवल यह नहीं कहता कि तुम सुबह प्राणायाम और प्रार्थना करो, वरन् जिन माइतों से जनमे हो उनके प्रति अपने फ़र्ज़ अदा करो। बड़ों 'इज़्ज़त और छोटों से प्यार-मोहब्बत करो । केवल पत्नी का ही नहीं वरन् अपनी बहिन का भी ख़याल रखो । केवल साले की ही जी - हजूरी मत करो। वरन् आप अपने सगे भाई का भी ख़याल करो ।
जिस चूल्हे को तुम जलाने जा रहे हो, पहले उस पर ध्यान दो कि कहीं उसके बर्नर में चीटियाँ या कीड़े-मकोड़े तो दुबके नहीं बैठे हैं। गैस जलाने से पहले उन जीवों को वहाँ से हटा लिया, तो अपने आप धर्म का आचरण हो गया। धर्म के व्यावहारिक रूप में आप सामायिक करें, प्रतिक्रमण करें, मगर यह देखें कि जिन उद्देश्यों को लेकर आप यह सब कर रहे हैं, क्या उन उद्देश्यों की पूर्ति हो रही है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दान-पुण्य तो खूब कर रहे हैं, मगर महज़ नाम के लिए ? नाम के लिए दिया गया दान तो केवल पत्थर पर जाकर अटक जाता है और गुप्त रूप से दिया गया सहयोग और समर्पण कृतपुण्य हो जाता है। दुनिया में नाम रहा ही किसका है । यहाँ सब चला चली के खेल हैं। दो इसलिए क्योंकि ईश्वर ने तुम्हें दिया है। दान दो, तो अपरिग्रह-भाव से ।
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आप उपवास करते हों तो बड़े प्रेम से करें, पर कहीं ऐसा न हो कि उपवास केवल निराहार रहने तक का होकर रह जाए और चित्त के क्रोध-कषाय मिट ही न पाएँ। उपवास करने वाले तपस्वी अक्सर मुझसे कहते हैं - हमने एक महीने का उपवास किया, जिसमें दो बार मुँह में कच्चा पानी चला गया। इसका दंड क्या होगा? क्या हमें दंडस्वरूप फिर उपवास करने होंगे ? मैं उनसे कहता हूँ - अनजान अवस्था में पानी चला गया होगा । अनजाने में हुआ दोष खुद ही माफ़ होता है, पर तुम मुझे यह बताओ कि तुमने एक महीने के उपवास में या नवरात्रा के व्रत में कितनी बार क्रोध और कषाय किया ? अगर एक मासक्षमण में व्यक्ति एक बार क्रोध-कषाय कर लेता है, तो उसको दो बार मासक्षमण (एक माह का उपवास) करने का दंड मिलता है। क्या कोई यह दंड स्वीकार करना चाहेगा ? तपस्या इस भाव से होनी चाहिए कि शरीर के प्रति हमारी आसक्ति टूट जाएँ, और मन में पलने वाले क्रोध-कषाय मिट जाएँ ।
कल की ही बात है । मेरा एक घर में जाना हुआ। उस घर की मालकिन ने पाँच उपवास किये थे। मैंने उनके हाथ से कैर के दो-चार दाने लिए। घर के सारे लोग उमड़ पड़े कि आप जो कहेंगे, वह प्रतिज्ञा हम ले लेंगे, मगर हमारे से आप कुछ स्वीकार करें। गृहस्वामिनी, जिसने पाँच उपवास किए थे, कहने लगी, पूज्यश्री, 'आप इन्हें जमीकंद (आलू, गाजर, मूली आदि) छुड़वा दीजिए।' यह सुनकर मैं मुस्कुरा पड़ा ।
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