SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहे । दिगम्बर बीसपंथी, तेरहपंथी, तारणपंथी में बँट गए। श्वेताम्बर मंदिरमार्गी, स्थानकवासी और तेरहपंथी के रूप में बँट गए। इतने में ही नहीं सिमटे, उसमें भी खरतरगच्छ अलग, तपागच्छ अलग। लोगों ने धर्म से जीवन के कल्याण के रास्ते तो कम खोजे हैं, आपस में बँटने और बँटाने के रास्ते ज़्यादा पा लिए हैं। छोटीछोटी बातें, छोटी-छोटी सोच, छोटे नज़रिए इन सबने मिलकर इंसान को भी छोटा बना दिया। आज अगर इंसान ने धर्म के भीतर छिपे मूल तत्त्व की खोज न की, तो धर्म के नाम पर हो चुके बँटवारे धर्म को दीमक की तरह खा जाएँगे। तब आदमी के पास धर्म के नाम पर छोटी-मोटी पूजा-पद्धतियाँ, कुछ रीति-रिवाज़ और कुछ परंपराएँ ही शेष रह जाएँगी। मेरे देखे धर्म के सारे संदेशों में कही कोई फ़र्क नहीं है, सारा फ़र्क केवल बाहर की पूजा-पद्धतियों और तौर-तरीक़ों में ही है। आज अगर आप सामायिक ले रहे हैं तो दो पंथों की सामायिक-विधियों में फ़र्क है, सामायिक की मूल भावना में कहाँ फ़र्क है ? धर्म का मर्म हमसे छूट गया और फ़िजूल की चीज़ों को ही हमने धर्म समझ लिया है। हमारे हाथ में धर्म के नाम पर केवल दो-चार तौर-तरीक़े ही बच गए हैं। अब वह धर्म कहाँ रहा कि जब दशरथ जैसे लोग अपने वचन की आन रखने के लिए अपनी 'जान' तक कुर्बान कर देते हैं। उन पुत्रों से प्रेरणा लीजिए जो पिता के वचनों की आन रखने के लिए चौदह साल का वनवास भी स्वीकार कर लेते हैं। उस पत्नी से प्रेरणा लीजिए जो पति के पद चिह्नों का अनुसरण करते हुए वनवास और गेरुएँ वस्त्र धारण कर लेती हैं। उस भाई के धर्म की कल्पना कीजिए जो संकट में भाई का साथ देने के लिए खुद वनवासी होने का संकल्प ले लेता है। अरे, सबसे बड़ी तपस्या की बात तो यह है कि भरत राजमहलों में रहकर भी राम से ज़्यादा महान् त्यागीतपस्वी का जीवन जी जाता है। पत्र भी इतने महान कि अपनी पत्नियों को अपने साथ रखने की बजाए अपनी माताओं की सेवाओं में रहने का निर्णय देते हैं । ऐसी नारियों से ही धर्म की यह मर्यादा निभती है : सास-ससुर पद पंकज पूजा, या सम नारी, धर्म नहीं दूजा। राम के वनवास के समय लक्ष्मण अपनी माँ के पास पहुँचकर कहता है-'माँ, आज मैं तुमसे पहली बार एक वचन, एक वरदान चाहता हूँ।' माँ कहती है - 'बेटे, ऐसे अशुभ क्षणों में तुम मुझसे वरदान माँग रहे हो, जिन क्षणों में राम और सीता वनगमन कर रहे हैं।' बेटे ने कहा – 'हाँ माँ, यही तो वह क्षण है जब मैं आज अपनी माँ से कोई वरदान चाह सकता हूँ।' अगर मैंने दो पल की भी देरी कर दी तो वरदान अर्थहीन हो जाएगा। माँ ने कहा - 'बेटा, पहले ही एक माँ ने वरदान माँगकर अनर्थ कर डाला है। अब तुम भला कौनसा वरदान चाहते हो? तब बेटे ने कहा – 'माँ, आज मैं तुमसे यह वरदान चाहता हूँ कि तुम मुझे अनुमति दो कि मैं भी अपने बड़े भाई और भाभी के पदचिह्नों का अनुसरण कर सकूँ और उनके साथ चौदह वर्ष का वनवास बिता सकूँ। धन्य है तुम्हें सुमित्रानन्दन ! कहाँ है अब वह धर्म और धर्म की मर्यादा?' एक भाई, भाई CHEER 133 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003860
Book TitleLife ho to Aisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2012
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy